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बचत

बबलू ने ददाजी के कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई. सब कुछ व्यवस्थित हो गया था. दादाजी के लिखने पढ़ने की मेज़ पर सब सामान करीने से लगा था. उनकी पसंदीदा किताबें अलमारी में सही प्रकार से सजी थीं. अपने काम से बबलू  मन ही मन संतुष्ट था. अब केवल गमलों में पानी देना बाकी था. वह पौधों को पानी देने के लिए चला गया.
दादाजी का बेटा और बहू विदेश में रहते थे. पत्नी को गुजरे कई साल बीत गए थे. गांव में उनकी कुछ खेती थी. जिसे उन्होंने बटाई पर दे रखा था. इसी बहाने साल में कुछ दिन गांव के खुले वातावरण बिता आते थे. 
दो बरस पहले जब वह गांव गए थे तब बबलू को अपने साथ ले आए थे. उनका अकेलापन भी दूर हो गया था और छोटे मोटे काम भी हो जाते थे.  बबलू के पिता खेत मजदूर थे. सर पर बहुत कर्ज़ था. इसलिए यह सोंच कर कि उन्हें कुछ मदद मिल जाएगी उसके पिता ने उसे ददाजी के साथ भेज दिया था. 
बबलू जब आया था तब उसकी छोटी बहन केवल चार माह की थी. हर बार जब उसके पिता उसकी पगार लेने आते थे तो वह उनसे उसके बारे में ढेरों सवाल पूंछता था. मन ही मन वह कैसी दिखती होगी उसकी कल्पना करता रहता था. अपनी बहन को वह बहुत चाहता था. 
ददाजी जब बाहर से लौटे तो बबलू इस उम्मीद से उनके पास गया कि आज ददाजी उसके काम से बहुत खुश होंगे. जब भी वह खुश होते थे उसे ईनाम देते थे. 
ददाजी ने कमरे का और बाहर बागीचे का मुआयना किया. फिर अपनी जेब से पाँच रुपये के दो सिक्के निकाल कर उसे दिए. पैसे लेकर वह खुशी से उछलता हुआ स्टोर रूम की तरफ भागा जहाँ वह रहता था. स्टूल पर चढ़ कर उसने गुल्लक उतारा और दोनों सिक्के उसमें डाल दिए. फिर हाथ से गुल्लक को तौल कर देखा. अब काफी पैसे जमा हो गए थे. अपनी छुटकी के जन्मदिन के लिए इस बार वह एक सुंदर सा फ्रॉक भिजवा सकता था.

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