एक माह तक बीमारी से जूझने के बाद अमर जी चल बसे. इस एक महीने में उनकी बेटी रुची ने उनकी तीमारदारी में कोई कमी नहीं रखी. बात चाहें डॉक्टरों से मिलने की हो, टेस्ट करवाने की या रात में अस्पताल में ठहरने की. उसने सब अकेले दम किया. अमर जी ने भी उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रखी थी. अच्छी शिक्षा दिलाई थी. जिसके कारण आज वह स्वावलंबी बन सकी थी.
आँगन में अमर जी का शव रखा था. सभी इस बात की चर्चा कर रहे थे कि चिता को आग कौन देगा. बेटा तो कोई है नहीं. लगता है जिस भतीजे के खराब चाल चलन के कारण उससे नाराज़ थे वही मुखाग्नि देगा.
सभी अटकलों को समाप्त करते हुए रुची ने ऐलान किया "पापा को मुखाग्नि मैं दूंगी."
आश्चर्य और विरोध के कुछ मिले जुले स्वर उभरे पर रुची के अटल इरादे के आगे हार गए.
आँगन में अमर जी का शव रखा था. सभी इस बात की चर्चा कर रहे थे कि चिता को आग कौन देगा. बेटा तो कोई है नहीं. लगता है जिस भतीजे के खराब चाल चलन के कारण उससे नाराज़ थे वही मुखाग्नि देगा.
सभी अटकलों को समाप्त करते हुए रुची ने ऐलान किया "पापा को मुखाग्नि मैं दूंगी."
आश्चर्य और विरोध के कुछ मिले जुले स्वर उभरे पर रुची के अटल इरादे के आगे हार गए.
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