बेमकसद सड़क पर घूमते हुए समीर को एक मैदान में शामियाना लगा नज़र आया. लाउडस्पीकर से किसी फिल्मी गाने की आवाज़ आ रही थी. घर में अकेले बैठे बैठे वह बोर हो गया था. अतः समय काटने के लिए कौतुहलवश वह शामियाने के भीतर चला गया.
भीतर बहुत गहमा गहमी थी. पूरा शामियाना रौशनी में नहाया था. स्टेज पर छोटा सा लड़का एक फिल्मी गाने पर नृत्य कर रहा था. बहुत सारे लोग कुर्सियों पर बैठे नृत्य देख रहे थे. पीछे कुछ कुर्सियां खाली थीं. समीर एक पर बैठ गया. कुछ देर में लड़के की परफार्मेंस खत्म हो गई. मंच से घोषणा हुई कि ग्यारह साल की सोनाली कोई भजन गाने वाली थी.
पीछे बैठे हुए इस सारे समारोह का कोई जायजा नही मिल रहा था. समीर उठा और किनारे किनारे चलता हुआ स्टेज के नज़दीक पहुँच गया. सोनाली 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' भजन गा रही थी. स्टेज पर लगे बैनर पर लिखा था 'दीपावली के शुभ अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजक हरीश अडवाणी'. उसने इधर उधर देखा. स्टेज के सामने पहली पंक्ति में मुख्य अतिथि के रूप में हरीश अडवाणी बैठे थे.
हरीश अडवाणी इलाके का जाना माना नाम थे. वह एक सफल व्यापारी थे. पैसा चारों ओर से बरस रहा था. अब अपना रसूख बढ़ाने के लिए राजनीति का रुख कर रहे थे. आने वाले विधानसभा चुनावों में उन्हें एक बड़े राजनैतिक दल की तरफ से टिकट मिलने की पूरी संभावना थी. यह समारोह लोगों में अपनी ख्याति बढ़ाने के लिए आयोजित किया गया था.
भजन समाप्त होने के साथ ही कार्यक्रम समाप्त हो गया. सबसे पहले हरीश जी अपने साथियों के साथ निकल गए. बाकी सब भी धीरे धीरे निकलने लगे.
समीर भी निकलने लगा. वह उस कुर्सी के सामने पहुँचा जहाँ हरीश जी बैठे थे. तभी एक आदमी निकलते हुए उससे टकरा गया. समीर का फोन हाथ से छूटकर कुर्सी के नीचे जा गिरा. वह फोन उठाने के लिए झुका तो कुर्सी के नीचे एक पर्स पड़ा मिला. फोन के साथ उसने पर्स भी उठा लिया और अपनी जेब में रख कर तेजी से बाहर आ गया.
रास्ते में चलते हुए वह सोंचने लगा यह पर्स हरीश जी का ही हो सकता है. उनकी कुर्सी के नीचे ही मिला था. चलते हुए उसने जेब को ऊपर से टटोल कर देखा. पर्स मोटा था. उसे यकीन हो गया पर्स हरीश जी का ही है. उसने मन ही मन कहा 'कल उनके बंगले पर जाकर लौटा दूंगा.'
घर आकर उसने सोंचा 'क्यों ना पर्स में क्या है देखा जाए.' लेकिन फिर विचार आया दूसरे की अमानत है. कल वापस करना है. देख कर क्या फायदा. उसने पर्स को मेज़ की दराज़ में डाल दिया और सोने चला गया.
बिस्तर पर पड़े हुए वह सोने की कोशिश कर रहा था परंतु नींद नही आ रही थी. उसकी सारी परेशानियां उसके सामने आ रही थीं. पिछले तीन महीने से बेरोज़गार था. जिस कारखाने में नौकरी करता था वह बंद हो गया था. छोटी सी तनख्वाह में वैसे भी खर्चा मुश्किल से चलता था. थोड़ा बहुत ही कुछ बच पाता था. इधर तो स्रोत ही सूख गया था. जो खर्च हो रहा था उस छोटी सी जमा पूंजी से ही हो रहा था. कुछ ही दिनों में फाके की नौबत आने वाली थी. इससे नाराज़ होकर पत्नी भी मायके चली गई थी.
वह पर्स उसकी आंखों के सामने नाचने लगा. उसके मन में खींच तान मची थी. मन दो हिस्सों में बंटा हुआ था. एक हिस्सा काला था वह पर्स में रखी रकम को रख लेने के लिए मचल रहा था. दूसरा सफेद हिस्सा दूसरे की अमानत में खयानत ना करने के पक्ष में था. दोनों हिस्सों में द्वंद चल रहा था.
काला हिस्सा बोला "पर्स में रखी रकम तुम्हारे इस मुश्किल वक्त में काम आ सकती है. हरीश जी के लिए तो यह बहुत मामूली रकम होगी. पर तुम्हारे बिगड़े काम इस रकम से बन सकते हैं."
समीर सोंचने लगा. बात तो सही है. जो भी रकम होगी उससे कुछ दिन तो आराम से कट सकते हैं. पत्नी को मना कर वापस बुला सकता है. फिर वह कौन सा सारी ज़िंदगी निठल्ला रहने वाला है. हाथ पैर तो मार ही रहा है. कोई ना कोई काम मिल जाएगा. वैसे भी पर्स उसे पड़ा मिला है. उसने चुराया तो नही है. उसने तय कर लिया कि वह पर्स को रख लेगा.
तभी सफेद मन ने उसे चेताया "याद है बचपन में जब एक बार तुम किसी की गेंद ले आए थे तो माँ ने डांट लगाई थी और उसे वापस करने को कहा था. माँ ने तुम्हें सीख दी थी कि कभी किसी और की वस्तु उसकी इजाज़त के बिना नही लेनी चाहिए."
वह फिर सोंच में पड़ गया. माँ के दिए संस्कार उसे भटकने से रोकने लगे. वह जो करने जा रहा था ठीक नही था.
अपनी जीत देख सफेद मन ने बात आगे बढ़ाई "अपने पिता के बारे में सोंचो. कठिन से कठिन समय में भी सदैव ईमानदारी से काम किया. कभी रिश्वत की एक पाई भी नही ली."
समीर अपने पिता के बारे में सोंचने लगा. हमेशा सादगीपूर्ण जीवन जिया उन्होंने. जितनी तनख़्वाह मिलती थी उसी में संतुष्ट रहते थे. दफ्तर में उनके साथ के कई लोगों ने रिश्वत के बल पर कितना कुछ जमा कर लिया लेकिन उन्होंने अपने उसूलों से समझौता नही किया. उसने तय कर लिया कि वह कल ही पर्स लौटा आएगा.
अपनी हार देख काले मन ने तुरंत ही अपना पासा फेंका "किन बेकार की बातों में उलझ रहे हो तुम. बचपन की बात और थी. तब तुम दुनियादारी नही जानते थे. अब तो तुम दुनिया को समझते हो ना. आज की दुनिया का सच है पैसा. इसके लिए लोग किस किस तरह के कांड करते हैं. तुमने किसी का गला तो नही काटा है."
समीर पुनः दूसरी दिशा में मुड़ गया. सही है. बिना पैसों के तो रिश्ते भी नही टिकते. उसकी पत्नी ही इस कठिन समय में उसे छोड़ कर चली गई. पैसा ही आज का सच है. वैसे भी इतने से पैसों से हरीश जी जैसे अमीर लोगों पर कोई फ़र्क नही पड़ेगा.
काला मन फूला नही समाया. वह आगे बोला "सोंचो यदि तुम्हारे पिता ने भी पैसे जमा किए होते तो आज तुम्हारी यह हालत ना होती."
समीर अपने स्कूल के दिन याद करने लगा. उसके दोस्त अक्सर ही कैंटीन से मन पसंद चीज़ें खरीद कर खाते थे. वह टिफिन में जो कुछ होता चुपचाप खा लेता था क्योंकी उसके पास पैसे नही होते थे. अक्सर उसे मन मार कर ही रहना पड़ता था. मन की वस्तु तो नही मिलती थी किंतु मन को काबू में रखने की नसीहत अवश्य मिलती थी. बारहवीं के बाद वह इंजीनियरिंग करना चाहता था किंतु एक बार फिर आर्थिक तंगी आड़े आ गई. उसके साथी पैसों के बल पर इंजीनियर बन गए जबकी उसे डिप्लोमा से ही संतोष करना पड़ा. फैक्ट्री में छोटी सी नौकरी मिली. वह भी बंद हो गई. अब इस उम्र में नई नौकरी मिलना भी मुश्किल हो रहा था.
उसके पिता को भी ईमानदारी का क्या फल मिला. आखिरी समय में सही इलाज ना मिलने के कारण कष्ट सहना पड़ा. उसके लिए यह छोटा सा मकान छोड़ कर गए थे. कई साल बीत गए इसकी पुताई हुए. जबकी उनके साथ के लोगों ने कितना कुछ बना लिया था.
अब तक शांत बैठा सफेद मन विरोध के स्वर में बोला "माना की उन्होंने अधिक संपत्ति अर्जित नहीं की. पर मन की शांति जो शारीरिक कष्ट के बावजूद भी उन्हें नसीब थी वह उन लोगों के पास नहीं थी जिन्होंने गलत तरीके से दौलत कमाई."
उसके मन के दोनों हिस्से आपस में यूं ही लड़ते रहे. अब समीर इस खींचतान से उकता गया था. वह उठा और पर्स दराज से निकाल कर ले आया. उसने पर्स का सारा सामान बिस्तर पर गिरा दिया. उसके.भीतर कुछ विज़िटिंग कार्ड्स, अखबार की कुछ कटिंग जिनमें नौकरी के इश्तेहार थे. पैसों के नाम पर कुल छब्बीस रुपये थे.
इतनी देर की उहापोह बेकार गई. सारे सपने एक झटके में टूट गए. समीर सोंचने लगा यह पर्स ज़रूर हरीश जी के पीछे वाली पंक्ति में बैठे लड़के का होगा. देखने से वह भी परेशान लग रहा था. शायद बेरोज़गार था. उसके छब्बीस रुपये भी गिर गए. उसके बारे में सोंच कर उसे बुरा लगा. किंतु अपने हालात के बारे में सोंच कर वह झल्ला गया. गुस्से में सारा सामान जमीन में फेंक कर वह बत्ती बुझा कर सो गया.
भीतर बहुत गहमा गहमी थी. पूरा शामियाना रौशनी में नहाया था. स्टेज पर छोटा सा लड़का एक फिल्मी गाने पर नृत्य कर रहा था. बहुत सारे लोग कुर्सियों पर बैठे नृत्य देख रहे थे. पीछे कुछ कुर्सियां खाली थीं. समीर एक पर बैठ गया. कुछ देर में लड़के की परफार्मेंस खत्म हो गई. मंच से घोषणा हुई कि ग्यारह साल की सोनाली कोई भजन गाने वाली थी.
पीछे बैठे हुए इस सारे समारोह का कोई जायजा नही मिल रहा था. समीर उठा और किनारे किनारे चलता हुआ स्टेज के नज़दीक पहुँच गया. सोनाली 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' भजन गा रही थी. स्टेज पर लगे बैनर पर लिखा था 'दीपावली के शुभ अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजक हरीश अडवाणी'. उसने इधर उधर देखा. स्टेज के सामने पहली पंक्ति में मुख्य अतिथि के रूप में हरीश अडवाणी बैठे थे.
हरीश अडवाणी इलाके का जाना माना नाम थे. वह एक सफल व्यापारी थे. पैसा चारों ओर से बरस रहा था. अब अपना रसूख बढ़ाने के लिए राजनीति का रुख कर रहे थे. आने वाले विधानसभा चुनावों में उन्हें एक बड़े राजनैतिक दल की तरफ से टिकट मिलने की पूरी संभावना थी. यह समारोह लोगों में अपनी ख्याति बढ़ाने के लिए आयोजित किया गया था.
भजन समाप्त होने के साथ ही कार्यक्रम समाप्त हो गया. सबसे पहले हरीश जी अपने साथियों के साथ निकल गए. बाकी सब भी धीरे धीरे निकलने लगे.
समीर भी निकलने लगा. वह उस कुर्सी के सामने पहुँचा जहाँ हरीश जी बैठे थे. तभी एक आदमी निकलते हुए उससे टकरा गया. समीर का फोन हाथ से छूटकर कुर्सी के नीचे जा गिरा. वह फोन उठाने के लिए झुका तो कुर्सी के नीचे एक पर्स पड़ा मिला. फोन के साथ उसने पर्स भी उठा लिया और अपनी जेब में रख कर तेजी से बाहर आ गया.
रास्ते में चलते हुए वह सोंचने लगा यह पर्स हरीश जी का ही हो सकता है. उनकी कुर्सी के नीचे ही मिला था. चलते हुए उसने जेब को ऊपर से टटोल कर देखा. पर्स मोटा था. उसे यकीन हो गया पर्स हरीश जी का ही है. उसने मन ही मन कहा 'कल उनके बंगले पर जाकर लौटा दूंगा.'
घर आकर उसने सोंचा 'क्यों ना पर्स में क्या है देखा जाए.' लेकिन फिर विचार आया दूसरे की अमानत है. कल वापस करना है. देख कर क्या फायदा. उसने पर्स को मेज़ की दराज़ में डाल दिया और सोने चला गया.
बिस्तर पर पड़े हुए वह सोने की कोशिश कर रहा था परंतु नींद नही आ रही थी. उसकी सारी परेशानियां उसके सामने आ रही थीं. पिछले तीन महीने से बेरोज़गार था. जिस कारखाने में नौकरी करता था वह बंद हो गया था. छोटी सी तनख्वाह में वैसे भी खर्चा मुश्किल से चलता था. थोड़ा बहुत ही कुछ बच पाता था. इधर तो स्रोत ही सूख गया था. जो खर्च हो रहा था उस छोटी सी जमा पूंजी से ही हो रहा था. कुछ ही दिनों में फाके की नौबत आने वाली थी. इससे नाराज़ होकर पत्नी भी मायके चली गई थी.
वह पर्स उसकी आंखों के सामने नाचने लगा. उसके मन में खींच तान मची थी. मन दो हिस्सों में बंटा हुआ था. एक हिस्सा काला था वह पर्स में रखी रकम को रख लेने के लिए मचल रहा था. दूसरा सफेद हिस्सा दूसरे की अमानत में खयानत ना करने के पक्ष में था. दोनों हिस्सों में द्वंद चल रहा था.
काला हिस्सा बोला "पर्स में रखी रकम तुम्हारे इस मुश्किल वक्त में काम आ सकती है. हरीश जी के लिए तो यह बहुत मामूली रकम होगी. पर तुम्हारे बिगड़े काम इस रकम से बन सकते हैं."
समीर सोंचने लगा. बात तो सही है. जो भी रकम होगी उससे कुछ दिन तो आराम से कट सकते हैं. पत्नी को मना कर वापस बुला सकता है. फिर वह कौन सा सारी ज़िंदगी निठल्ला रहने वाला है. हाथ पैर तो मार ही रहा है. कोई ना कोई काम मिल जाएगा. वैसे भी पर्स उसे पड़ा मिला है. उसने चुराया तो नही है. उसने तय कर लिया कि वह पर्स को रख लेगा.
तभी सफेद मन ने उसे चेताया "याद है बचपन में जब एक बार तुम किसी की गेंद ले आए थे तो माँ ने डांट लगाई थी और उसे वापस करने को कहा था. माँ ने तुम्हें सीख दी थी कि कभी किसी और की वस्तु उसकी इजाज़त के बिना नही लेनी चाहिए."
वह फिर सोंच में पड़ गया. माँ के दिए संस्कार उसे भटकने से रोकने लगे. वह जो करने जा रहा था ठीक नही था.
अपनी जीत देख सफेद मन ने बात आगे बढ़ाई "अपने पिता के बारे में सोंचो. कठिन से कठिन समय में भी सदैव ईमानदारी से काम किया. कभी रिश्वत की एक पाई भी नही ली."
समीर अपने पिता के बारे में सोंचने लगा. हमेशा सादगीपूर्ण जीवन जिया उन्होंने. जितनी तनख़्वाह मिलती थी उसी में संतुष्ट रहते थे. दफ्तर में उनके साथ के कई लोगों ने रिश्वत के बल पर कितना कुछ जमा कर लिया लेकिन उन्होंने अपने उसूलों से समझौता नही किया. उसने तय कर लिया कि वह कल ही पर्स लौटा आएगा.
अपनी हार देख काले मन ने तुरंत ही अपना पासा फेंका "किन बेकार की बातों में उलझ रहे हो तुम. बचपन की बात और थी. तब तुम दुनियादारी नही जानते थे. अब तो तुम दुनिया को समझते हो ना. आज की दुनिया का सच है पैसा. इसके लिए लोग किस किस तरह के कांड करते हैं. तुमने किसी का गला तो नही काटा है."
समीर पुनः दूसरी दिशा में मुड़ गया. सही है. बिना पैसों के तो रिश्ते भी नही टिकते. उसकी पत्नी ही इस कठिन समय में उसे छोड़ कर चली गई. पैसा ही आज का सच है. वैसे भी इतने से पैसों से हरीश जी जैसे अमीर लोगों पर कोई फ़र्क नही पड़ेगा.
काला मन फूला नही समाया. वह आगे बोला "सोंचो यदि तुम्हारे पिता ने भी पैसे जमा किए होते तो आज तुम्हारी यह हालत ना होती."
समीर अपने स्कूल के दिन याद करने लगा. उसके दोस्त अक्सर ही कैंटीन से मन पसंद चीज़ें खरीद कर खाते थे. वह टिफिन में जो कुछ होता चुपचाप खा लेता था क्योंकी उसके पास पैसे नही होते थे. अक्सर उसे मन मार कर ही रहना पड़ता था. मन की वस्तु तो नही मिलती थी किंतु मन को काबू में रखने की नसीहत अवश्य मिलती थी. बारहवीं के बाद वह इंजीनियरिंग करना चाहता था किंतु एक बार फिर आर्थिक तंगी आड़े आ गई. उसके साथी पैसों के बल पर इंजीनियर बन गए जबकी उसे डिप्लोमा से ही संतोष करना पड़ा. फैक्ट्री में छोटी सी नौकरी मिली. वह भी बंद हो गई. अब इस उम्र में नई नौकरी मिलना भी मुश्किल हो रहा था.
उसके पिता को भी ईमानदारी का क्या फल मिला. आखिरी समय में सही इलाज ना मिलने के कारण कष्ट सहना पड़ा. उसके लिए यह छोटा सा मकान छोड़ कर गए थे. कई साल बीत गए इसकी पुताई हुए. जबकी उनके साथ के लोगों ने कितना कुछ बना लिया था.
अब तक शांत बैठा सफेद मन विरोध के स्वर में बोला "माना की उन्होंने अधिक संपत्ति अर्जित नहीं की. पर मन की शांति जो शारीरिक कष्ट के बावजूद भी उन्हें नसीब थी वह उन लोगों के पास नहीं थी जिन्होंने गलत तरीके से दौलत कमाई."
उसके मन के दोनों हिस्से आपस में यूं ही लड़ते रहे. अब समीर इस खींचतान से उकता गया था. वह उठा और पर्स दराज से निकाल कर ले आया. उसने पर्स का सारा सामान बिस्तर पर गिरा दिया. उसके.भीतर कुछ विज़िटिंग कार्ड्स, अखबार की कुछ कटिंग जिनमें नौकरी के इश्तेहार थे. पैसों के नाम पर कुल छब्बीस रुपये थे.
इतनी देर की उहापोह बेकार गई. सारे सपने एक झटके में टूट गए. समीर सोंचने लगा यह पर्स ज़रूर हरीश जी के पीछे वाली पंक्ति में बैठे लड़के का होगा. देखने से वह भी परेशान लग रहा था. शायद बेरोज़गार था. उसके छब्बीस रुपये भी गिर गए. उसके बारे में सोंच कर उसे बुरा लगा. किंतु अपने हालात के बारे में सोंच कर वह झल्ला गया. गुस्से में सारा सामान जमीन में फेंक कर वह बत्ती बुझा कर सो गया.
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