" तो क्या हो गया अगर उसके जन्मदिन पर एक छोटा सा उपहार दे दिया। बेचारी विधवा है। खुश हो जाएगी।" वृंदा अपने भाई भाभी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाने ही जा रही थी की ये शब्द उसके कानों में पड़े। उसका दिल धक् से रह गया। वह उल्टे पाँव अपने कमरे में आ गयी।
तीन माह पूर्व अपने पति की मृत्यु के बाद वृंदा अपनी एक वर्ष की बेटी को लेकर अपने मायके आई थी। बचपन से ही अपने पिता और बड़े भाई की लाडली थी वह। शादी के बाद उसे ससुराल में भी वही प्यार और सम्मान मिला। अपनी गृहस्ती की रानी थी वह। हर काम उसकी इच्छा के हिसाब से ही होता था।
उसके पति अक्सर उसे अपने बैंक बैलेंस तथा अन्य विनियोगों की जानकारी देते रहते थे। वे चाहते थे की वृंदा बहार की दुनिया से भी परिचित हो। अक्सर उसे समझाते की वक़्त का कोई भरोसा नहीं। उसे हर स्तिथि के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि वक़्त पड़ने पर उसे दूसरों का मुह न देखना पड़े। किन्तु वृंदा उन्हें अपने तर्क देकर टाल देती थी।
जीवन में हम जो सोंचते हैं वही हमेशा नहीं होता है। वृंदा को भी वैधव्य का सामना करना पड़ा। दुःख के इस अवसर पर उसे अपने प्रियजनों की याद आई। पिता तो रहे नहीं किन्तु भैया उस से कहते थे "तू मेरी छोटी बहन नहीं बल्कि बेटी है।" अतः वह अपने मायके आ गयी।
जब तक उसके पति जीवित थे उसके जन्म दिन पर हर साल उसके भैया भाभी महंगे तोहफे लेकर उसके घर जाते थे। उसने महसूस किया है कि इन तीन महीनों में लोगों का बर्ताव उसके प्रति बदल गया है। अक्सर लोग उसे अत्यधिक दया दिखाते हैं यह बात उसके स्वाभिमान को गवारा नहीं थी। किन्तु आज तो उसके पिता समान भाई जिनकी वह लाडली थी के लिए भी वह सिर्फ बेचारी विधवा बन गयी थी। इस बात से उसे बहुत चोट पहुँची थी। वह विधवा थी पर उस व्यक्ति की जिसने उसे सदा स्वाभिमान पूर्वक जीने की प्रेरणा दी थी। वह अपने आत्मसम्मान से समझौता कर जीना नहीं चाहती थी।
सारी रात अपने आने वाले जीवन पर विचार करती रही। वह अकेली नहीं थी उसकी छोटी सी बच्ची का जीवन भी उस पर निर्भर था। उसने फैसला किया कि वह अपने जीवन की कमान अब खुद संभालेगी ताकि अपनी बच्ची को एक अच्छी परवरिश दे सके। उसे स्वावलंबी बना सके।
सुबह होने पर उसने अपना सूटकेस उठाया और एक दृढ इरादे के साथ अपने घर वापस लौट गयी।
तीन माह पूर्व अपने पति की मृत्यु के बाद वृंदा अपनी एक वर्ष की बेटी को लेकर अपने मायके आई थी। बचपन से ही अपने पिता और बड़े भाई की लाडली थी वह। शादी के बाद उसे ससुराल में भी वही प्यार और सम्मान मिला। अपनी गृहस्ती की रानी थी वह। हर काम उसकी इच्छा के हिसाब से ही होता था।
उसके पति अक्सर उसे अपने बैंक बैलेंस तथा अन्य विनियोगों की जानकारी देते रहते थे। वे चाहते थे की वृंदा बहार की दुनिया से भी परिचित हो। अक्सर उसे समझाते की वक़्त का कोई भरोसा नहीं। उसे हर स्तिथि के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि वक़्त पड़ने पर उसे दूसरों का मुह न देखना पड़े। किन्तु वृंदा उन्हें अपने तर्क देकर टाल देती थी।
जीवन में हम जो सोंचते हैं वही हमेशा नहीं होता है। वृंदा को भी वैधव्य का सामना करना पड़ा। दुःख के इस अवसर पर उसे अपने प्रियजनों की याद आई। पिता तो रहे नहीं किन्तु भैया उस से कहते थे "तू मेरी छोटी बहन नहीं बल्कि बेटी है।" अतः वह अपने मायके आ गयी।
जब तक उसके पति जीवित थे उसके जन्म दिन पर हर साल उसके भैया भाभी महंगे तोहफे लेकर उसके घर जाते थे। उसने महसूस किया है कि इन तीन महीनों में लोगों का बर्ताव उसके प्रति बदल गया है। अक्सर लोग उसे अत्यधिक दया दिखाते हैं यह बात उसके स्वाभिमान को गवारा नहीं थी। किन्तु आज तो उसके पिता समान भाई जिनकी वह लाडली थी के लिए भी वह सिर्फ बेचारी विधवा बन गयी थी। इस बात से उसे बहुत चोट पहुँची थी। वह विधवा थी पर उस व्यक्ति की जिसने उसे सदा स्वाभिमान पूर्वक जीने की प्रेरणा दी थी। वह अपने आत्मसम्मान से समझौता कर जीना नहीं चाहती थी।
सारी रात अपने आने वाले जीवन पर विचार करती रही। वह अकेली नहीं थी उसकी छोटी सी बच्ची का जीवन भी उस पर निर्भर था। उसने फैसला किया कि वह अपने जीवन की कमान अब खुद संभालेगी ताकि अपनी बच्ची को एक अच्छी परवरिश दे सके। उसे स्वावलंबी बना सके।
सुबह होने पर उसने अपना सूटकेस उठाया और एक दृढ इरादे के साथ अपने घर वापस लौट गयी।
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