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पार्क की बेंच

 

मिस्टर बंसल बेचैनी से उनकी राह देख रहे थे। दो दिन हो गए वो पार्क नहीं आईं। हर बीतते क्षण के साथ उनके आने की उम्मीद घटती जा रही थी।

तकरीबन एक वर्ष  पूर्व  उनसे इसी पार्क में मुलाक़ात हुई थी। उम्र के इस पड़ाव में जब साथी की सबसे अधिक ज़रूरत  होती है मिस्टर बंसल की तरह वह भी अकेली थीं। कुछ औपचारिक मुलाकातें हमदर्दी के रिश्ते में बदल गईं। रोज़ सुबह पार्क की बेंच पर बैठ कर एक दूसरे का सुख दुःख बांटना उनकी दिनचर्या का अहम् हिस्सा बन गया था जो उन्हें पूरे दिन तरोताज़ा रखती थी।

मिस्टर बंसल के मन में कई बार इस रिश्ते को कोई नाम देने की बात  आयी। किन्तु कभी भी "मिसेज गुप्ता" का संबोधन "सुजाता" में नहीं बदल सका।

अक्सर मिसेज गुप्ता उनके लिए कुछ न कुछ बना कर लाती थीं। हर बार मिस्टर बंसल कहते " आप इतनी तकलीफ क्यों करती हैं।" हर बार मिसेज गुप्ता वही वही पुराना जवाब देतीं " क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती हूँ।"

पिछले कुछ दिनों से मिसेज गुप्ता कुछ परेशान लग रही थीं। मिस्टर बंसल के पूछने पर " कुछ ख़ास नहीं " कह कर टाल दिया।

गए दो रोज़ से तो वह आयीं भी नहीं। जाने क्या बात है सोंच कर मिस्टर बंसल परेशान थे। उन्होंने घड़ी देखी. अब तो आने की कोई उम्मीद नहीं। निराश होकर मिस्टर बंसल जाने को खड़े हुए ही थे की मिसेज गुप्ता आती हुई दिखाई पड़ीं।

दोनों पार्क की बेंच पर बैठ गए। कुछ देर दोनों के बीच ख़ामोशी छायी रही। ख़ामोशी को तोड़ने की पहल मिसेज गुप्ता ने की " मेरे बेटे बहु कई दिनों से विदेश में बसने की फिराक में थे। उन्हें अमेरिका की किसी कंपनी में जॉब  मिल गयी है। अब मैं अपने छोटे बेटे के साथ बेंगलौर में रहूंगी। कल ही मुझे जाना है।"

एक बार फिर मौन छा  गया। इस बार मिस्टर बंसल ने मौन को तोड़ा "सुजाता क्या हम एक साथ ......." मिसेज गुप्ता  कुछ देर कुछ सोंचती रहीं। फिर बिना कोई जवाब दिए एक स्टील का डब्बा उन्हें थमा कर चली गयीं। उस डब्बे के साथ मिस्टर बंसल को पार्क की बेंच पर अकेला छोड़ कर।

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