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आपनाथ सापनाथ

 

एक राज्य था। वहां की प्रजा को पहली बार यह अधिकार मिला की वह अपना राजा  स्वयं चुने। प्रजा बहुत प्रसन्न थी। राज्य के दो उत्तराधिकारी थे एक "आपनाथ" और दूजे "सांपनाथ"। पहले चुनाव का समय आया दोनों प्रत्याशियों ने जनता को रिझाने की पुरजोर कोशिश की। जनता से बड़े बड़े वादे किये किन्तु आपनाथ ने बाजी मार ली। जनता बेहद खुश थी की अब उसके दिन बदलेंगे किन्तु गद्दी पर बैठते ही आपनाथ प्रजा को भूल गए। आपनाथ  की नज़र राजकीय कोष पर पड़ी। उन्होंने दोनों हाथों से उसे लुटाना आरम्भ कर दिया। आपनाथ और उनके सगे सम्बन्धियों के दिन बदल गए। सूखी रोटी को तरसने वाले मलाई खाने लगे। जनता दो वक़्त की रोटी को त्राहि त्राहि करने लगी। सांपनाथ ने जनता के हित में बहुत आंसू बहाए और आपनाथ  और उनकी नीतियों का कड़ा विरोध किया। प्रजा को लगा की उनसे भारी भूल हो गयी। उनका परम हितैषी तो सांपनाथ है। जनता उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी जब आपनाथ को हटा कर सांपनाथ को गद्दी पर बिठा सके। जल्द ही वो समय भी आया। इस बार प्रजा ने सांपनाथ को चुना। एक बार फिर प्रजा सुखद भविष्य के सपने देखने लगी। गद्दी पर बैठते ही सांपनाथ का भी वही हाल हुआ। इस बार उन्होंने एवं उनके सम्बन्धियों ने खूब मलाई खाई। प्रजा का हाल बद से बद्तर हो गया। इस बार आपनाथ ने जनता की इस दयनीय दशा के लिए सांपनाथ को जिम्मेदार बताया। इस तरह कई दसक बीत गए कभी आप्नाथ तो कभी सांपनाथ गद्दी पर बैठ कर जनता को लूटते रहे। कभी कभी प्रजा में से कुछ विरोध के स्वर उठे किन्तु आपसी खिचातानी और छोटे छोटे स्वार्थों के चलते दब गए। अधिकांश जनता ने यह सोंच कर की कोई भी राजा  बने हमें क्या फर्क पड़ेगा इस स्तिथि के सामने घुटने टेक दिए।








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