सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अनपढ़



वंदना का आज का दिन भी अन्य दिनों की भांति आरंभ हुआ था किंतु खास था. आज उसकी तपस्या फलित होने वाली थी. उसके व्यक्तित्व को नई पहचान मिलने वाली थी.
आज रह रह कर उसे पिछले दिन याद आ रहे थे.
प्राण पण से वह पति की सेवा करती थी. सास की एक आवाज़ पर दौड़ जाती थी. परंतु तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त कुछ नही मिलता था. अपने बेटे के लिए वह इतना कष्ट सहती थी. ताकि बड़े अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई में कोई अड़चन ना आए. लेकिन अपने मित्रों के बीच वह उससे अधिक अपनी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली चाची को महत्व देता था.
उसके सारे गुणों पर उसकी एक कमी काली स्याही पोत देती थी. उसका अनपढ़ होना. इन सब से बहुत टूट जाती थी वंदना. एक ख़्वाहिश दबी छुपी सी उसके मन में उपजने लगी थी. वह पढ़ना चाहती थी. किंतु कौन था जो उसकी इच्छा को समझता.
ऐसे में उसकी नई पड़ोसन दीपा किसी देवदूत की भांति उसके जीवन में आई. तलाकशुदा दीपा स्वावलंबी थी. उसने भी जीवन में बहुत सहा था. अतः वंदना की पीड़ा समझती थी. दीपा अपने खाली समय में उसे पढ़ाने लगी. कुछ समय तक सब सही चला किंतु जब वंदना की सास को पता चला तो उन्होंने क्लेश किया "पति की छोड़ी औरत से वास्ता रखने की कोई जरूरत नहीं." पति ने व्यंगबाण चलाए "तो बूढ़ा तोता राम राम करना सीखेगा". किंतु इस बार जो दिया वंदना के मन में जला था उसने भी तूफानों से लड़ने की ठानी थी.
काम करते हुए उसने घडी पर नज़र डाली. अभी समय था. वह फिर सोंचने लगी.
उसने किसी भी ताने या विरोध की परवाह किये बिना अपने  लक्ष्य की ओर सफर ज़ारी रखा.  दीपा ना सिर्फ उसे आगे की पढ़ाई के लिए प्रेरित करती थी बल्कि इस योग्य बनने में भी मदद कर रही थी कि वह समय के साथ कदम मिला कर चल सके. समय बीतने लगा. दीपा का दूसरे शहर में स्थानांतरण हो गया. लेकिन वंदना की तपस्या जारी रही.
अब भी वह पहले की तरह ही सारे काम करती थी. परंतु अब अपने लिए भी समय निकालती थी. इस समय की सबसे अच्छी मित्र थीं उसकी पुस्तकें. इनके संग बिताया हर पल बहुमूल्य था. अब वह अपने व्यक्तित्व को नित नए आयाम दे रही थी. उसने ओपन स्कूल से दसवीं का फॉर्म भरा था.
आज परीक्षाफल आने वाला था. समय पर उसने अपने बेटे का लैपटॉप मांगा. उसकी उंगलियां तेजीं से कीबोर्ड पर चलने लगीं. प्रिंटर से एक कागज़ निकला. उसका बेटा मॉनिटर को बड़े गौर से देख रहा था. उसकी आँखों में गर्व था. पति ने प्रिंटआउट को आश्चर्य से देखा और अपनी माँ को दे दिया. तिरस्कार और अपमान का भाव प्रसंशा में बदल गया था. सब की आंखों में आज वह अपना वजूद देख रही थी.


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ना मे हाँ

सब तरफ चर्चा थी कि गीता पुलिस थाने के सामने धरने पर बैठी थी। उसने अजय के खिलाफ जो शिकायत की थी उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।  पिछले कई महीनों से गीता बहुत परेशान थी। कॉलेज आते जाते अजय उसे तंग करता था। वह उससे प्रेम करने का दावा करता था। गीता उसे समझाती थी कि उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वह सिर्फ पढ़ना चाहती है। लेकिन अजय हंस कर कहता कि लड़की की ना में ही उसकी हाँ होती है।  गीता ने बहुत कोशिश की कि बात अजय की समझ में आ जाए कि उसकी ना का मतलब ना ही है। पर अजय नहीं समझा। पुलिस भी कछ नहीं कर रही थी। हार कर गीता यह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गई कि 'लड़की की ना का सम्मान करो।'  सभी उसकी तारीफ कर रहे थे।

गुमसुम

अपने पापा के सामने बैठा विपुल बहुत उदास था. उसके जीवन में इतनी बड़ी खुशी आई थी किंतु उसके पापा उदासीन बैठे थे. तीन साल पहले हुए हादसे ने उससे उसके पिता को छीन लिया था. उसके पापा की आंखों के सामने ही नदी की तेज़ धारा मम्मी को बहा कर ले गई थी. उस दिन से उसके पिता जैसे अपने भीतर ही कहीं खो गए थे. विपुल ने बहुत प्रयास किया कि किसी तरह उनकी उस अंदरूनी दुनिया में प्रवेश कर सके. परंतु उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी का परिणाम यह हुआ कि वह स्वयं की निराशा के अंधेरे में खोने लगा. ऐसे में अपने शुभचिंतकों की बात मान कर उसने विवाह कर अपने जीवन को एक नई दिशा दी. वह निराशा के भंवर से उबरने लगा. लेकिन अपने पापा की स्थिति पर उसे दुख होता था. दस दिन पहले जन्मी अपनी बच्ची के रोने की आवाज़ उसे उसके विचारों से बाहर ले आई. वह उसके पालने के पास गया. उसकी पत्नी सो रही थी. उसने पूरे एहतियात से बच्ची को उठाया और उसे लेकर अपने पापा के पास आ गया. विपुल ने बच्ची को अपने पिता के हाथों में सौंप दिया. बच्ची उन्हें देख कर मुस्कुरा दी. कुछ देर उसै देखने के बाद उन्होंने उसे उठाया और सीने से लगा लिया. विप...

केंद्र बिंदु

पारस देख रहा था कि आरव का मन खाने से अधिक अपने फोन पर था। वह बार बार मैसेज चेक कर रहा था। सिर्फ दो रोटी खाकर वह प्लेट किचन में रखने के लिए उठा तो पारस ने टोंक दिया। "खाना तो ढंग से खाओ। जल्दी किस बात की है तुम्हें।" "बस पापा मेरा पेट भर गया।" कहते हुए वह प्लेट किचन में रख अपने कमरे में चला गया। पारस का मन भी खाने से उचट गया। उसने प्लेट की रोटी खत्म की और प्लेट किचन में रख आया। बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर वह भी अपने कमरे में चला गया। लैपटॉप खोल कर वह ऑफिस का काम करने लगा। पर काम में उसका मन नही लग रहा था। वह आरव के विषय में सोच रहा था। उसने महसूस किया था कि पिछले कुछ महीनों में आरव के बर्ताव में बहुत परिवर्तन आ गया है। पहले डिनर का समय खाने के साथ साथ आपसी बातचीत का भी होता था। आरव उसे स्कूल में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा देता था। किंतु जबसे उसने कॉलेज जाना शुरू किया है तब से बहुत कम बात करता है। इधर कुछ दिनों से तो उसका ध्यान ही जैसे घर में नही रहता था। पारस सोचने लगा। उम्र का तकाज़ा है। उन्नीस साल का हो गया है अब वह। नए दोस्त नया माहौल इस सब में उसने अपनी अलग दुनि...