रामेश्वर आज ही गांव से लौटा था. इस बार बीए पास कर चुकी अपनी बेटी का ब्याह भी तय कर आया.
वह पिछले तीस वर्षों से पंडित दीनदयाल अग्निहोत्री की सेवा में था. अग्निहोत्री जी भारतीय धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने लगभग सभी ग्रंथों का अध्ययन किया था. भारतीय धर्म और दर्शन पर आख्यान देने के लिए उन्हें देश व विदेश से निमंत्रण आते थे. कई पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे. इसके अतरिक्त वह एक विशाल पैतृक संपत्ति के स्वामी थे.
रामेश्वर पूरे मन से उनकी सेवा करता था. समय असमय जो भी आदेश मिलता बिना किसी शिकायत के उसका पालन करता. पंडितजी के प्रति उसमें बहुत श्रृद्धा थी. यही कारण था कि कभी उसने कोई तय पारिश्रमिक की मांग नही की. पंडितजी जो दे देते चुपचाप ले लेता था.
शाम के समय पंडित जी अपने कक्ष में बैठे कुछ लिख रहे थे. रामेश्वर ने कक्ष में प्रवेश किया. उन्हें प्रणाम कर बोला "इस बार बिटिया का विवाह तय कर दिया. आप तो ज्ञानी हैं. समझते हैं कि कितने खर्चे होते हैं. यदि आप ...."
उसकी बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोले "देखो रामेश्वर मेरा तुम्हारी तरफ कोई हिसाब बाकी नही. हाँ यदि तुम कहो तो कुछ ॠण दिला सकता हूँ." यह कह कर वह फिर लिखने लगे.
रामेश्वर बिना बोले बाहर आ गया. उसने मन को समझाया कि उसकी सेवा का शायद इतना ही फल था.
वह पिछले तीस वर्षों से पंडित दीनदयाल अग्निहोत्री की सेवा में था. अग्निहोत्री जी भारतीय धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने लगभग सभी ग्रंथों का अध्ययन किया था. भारतीय धर्म और दर्शन पर आख्यान देने के लिए उन्हें देश व विदेश से निमंत्रण आते थे. कई पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे. इसके अतरिक्त वह एक विशाल पैतृक संपत्ति के स्वामी थे.
रामेश्वर पूरे मन से उनकी सेवा करता था. समय असमय जो भी आदेश मिलता बिना किसी शिकायत के उसका पालन करता. पंडितजी के प्रति उसमें बहुत श्रृद्धा थी. यही कारण था कि कभी उसने कोई तय पारिश्रमिक की मांग नही की. पंडितजी जो दे देते चुपचाप ले लेता था.
शाम के समय पंडित जी अपने कक्ष में बैठे कुछ लिख रहे थे. रामेश्वर ने कक्ष में प्रवेश किया. उन्हें प्रणाम कर बोला "इस बार बिटिया का विवाह तय कर दिया. आप तो ज्ञानी हैं. समझते हैं कि कितने खर्चे होते हैं. यदि आप ...."
उसकी बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोले "देखो रामेश्वर मेरा तुम्हारी तरफ कोई हिसाब बाकी नही. हाँ यदि तुम कहो तो कुछ ॠण दिला सकता हूँ." यह कह कर वह फिर लिखने लगे.
रामेश्वर बिना बोले बाहर आ गया. उसने मन को समझाया कि उसकी सेवा का शायद इतना ही फल था.
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