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अगर तुम ना होते

डिनर के बाद सुधीर स्टडी में चला गया. एक महत्वपूर्ण केस उनकी वकालत फर्म को लड़ने के लिए मिला था. उसकी तैयारी के लिए आज देर रात तक काम करना था. कुछ देर बाद अवनि स्टडी में आई. चुपचाप कॉफी का मग रख कर जाने लगी. "अवनि ज़रा ठहरना." सुधीर ने पीछे से आवाज़ दी. जाते हुए अवनि ठिठक गई. सुधीर की तरफ देख कर बोली "क्या हुआ." उसके इस तरह चौंक जाने से सुधीर उसे तसल्ली देते हुए बोला "कुछ नहीं, कुछ देर यहाँ बैठो." अवनि उसके पास जाकर बैठ गई. उसकी आँखों में अभी भी प्रश्न था. सुधीर ने फाइल बंद करके रख दी. उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसने प्यार से पूँछा "कोई परेशानी है." "नहीं, कोई परेशानी नहीं है. आपने यह सवाल क्यों किया." "मैंने महसूस किया है. आजकल तुम बहुत खामोश रहती हो. पहले तो कभी इतनी चुप नहीं रहती थी." "वो कुछ थकावट सी रहती है." अवनि ने सफाई दी. "तभी तो कहता हूँ कि इतना काम मत किया करो. मैं तो व्यस्तता के कारण तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता. तुम कोई मेड क्यों नहीं रख लेती हो." "परेशान होने की आवश्यक्त...

वापसी

" तो क्या हो गया अगर उसके जन्मदिन पर एक छोटा सा उपहार दे दिया. बेचारी विधवा है. खुश हो जाएगी." वृंदा अपने भाई भाभी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाने ही जा रही थी की ये शब्द उसके कानों में पड़े. उसका दिल धक् से रह गया. वह उल्टे पाँव अपने कमरे में आ गयी. अपने भाई के शब्द शूल की भांति उसके दिल में चुभ गए थे. अपना सारा वजूद ही उसे हीन प्रतीत हो रहा था. तीन माह पूर्व अपने पति की मृत्यु  के बाद वृंदा अपनी  एक वर्ष की  बेटी  को लेकर अपने मायके आ गई थी. बचपन से ही वह अपने पिता और बड़े भाई की लाडली थी. उसके बड़े भाई सदैव उसकी हर इच्छा पूरी करते थे. उसके विवाह पर भी पिता ने सारी व्यवस्था उसकी पसंद के अनुसार ही की थी. शादी के बाद उसे ससुराल में भी वही प्यार और सम्मान मिला जो पिता के घर में मिला था. अपनी गृहस्ती की रानी थी वह. हर काम उसकी इच्छा के हिसाब से ही होता था. उसका पति रमेश एक आधूनिक विचारों का व्यक्ति था. वह स्त्री पुरुष की समानता पर यकीन करता था. उसका मानना था कि गृहस्ती दोनों की साझा होती है. दोनों का ही अधिकार एवं दायित्व समान होता है. वह अ...

मुखाग्नि

अमरमणि जी की केवल एक ही संतान थी, उनकी लाड़ली बेटी रुची. उन्होंने कभी बेटे की कमी महसूस नहीं की. उनकी बेटी ही उनके लिए सब कुछ थी. उनके सारे सपने उसी से जुड़े थे. रुची एक अच्छी टेनिस खिलाड़ी थी. उसकी इस प्रतिभा को पहचान कर उन्होंने उसके लिए सबसे अच्छी कोचिंग की व्यवस्था की थी. उनके इस प्रोत्साहन के कारण ही रुची राज्य स्तर की उभरती हुई खिलाड़ी थी. वह बहुत तेजी से टेनिस की दुनिया में अपने कदम जमा रही थी. अमर जी को अपनी बेटी पर नाज़ था. परंतु उनसे उलट उनकी पत्नी रेनू सदैव यही बात करती रहती थीं कि काश उनके एक बेटा होता. अक्सर अमर जी की उनसे बहस हो जाती थी. "यह क्या हमेशा बेटे के लिए रोती रहती हो. ईश्वर ने हमें इतनी अच्छी बेटी दी है जो नसीब वालों को ही मिलती है." रेनू अपना तर्क देतीं. "वो सब ठीक है पर बेटा तो आखिर बेटा ही होता है. बहुत कुछ ऐसा है जो केवल एक बेटा ही कर सकता है." "यह तुम्हारा वहम है. हमारी बेटी अकेली दस बेटों पर भारी है. देखना अगर जरूरत पड़ी तो वह यह साबित करके दिखाएगी." उनके सारे तर्कों को वह सिरे से खारिज कर देती थीं. अपनी माँ के इस...

काला सफेद

बेमकसद सड़क पर घूमते हुए समीर को एक मैदान में शामियाना लगा नज़र आया. लाउडस्पीकर से किसी फिल्मी गाने की आवाज़ आ रही थी. घर में अकेले बैठे बैठे वह बोर हो गया था. अतः समय काटने के लिए कौतुहलवश वह शामियाने के भीतर चला गया.  भीतर बहुत गहमा गहमी थी. पूरा शामियाना रौशनी में नहाया था. स्टेज पर छोटा सा लड़का एक फिल्मी गाने पर नृत्य कर रहा था. बहुत सारे लोग कुर्सियों पर बैठे नृत्य देख रहे थे. पीछे कुछ कुर्सियां खाली थीं. समीर एक पर बैठ गया. कुछ देर में लड़के की परफार्मेंस खत्म हो गई. मंच से घोषणा हुई कि ग्यारह साल की सोनाली कोई भजन गाने वाली थी.  पीछे बैठे हुए इस सारे समारोह का कोई जायजा नही मिल रहा था. समीर उठा और किनारे किनारे चलता हुआ स्टेज के नज़दीक पहुँच गया. सोनाली 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' भजन गा रही थी. स्टेज पर लगे बैनर पर लिखा था 'दीपावली के शुभ अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजक हरीश अडवाणी'. उसने इधर उधर देखा. स्टेज के सामने पहली पंक्ति में मुख्य अतिथि के रूप में हरीश अडवाणी बैठे थे.  हरीश अडवाणी इलाके का जाना माना नाम थे. वह एक सफल व्यापारी थे. पैसा चारों ओर से बर...

गुड़िया

बक्से से सामान निकालते हुए कुछ गिर गया. सावित्री के उठाने से पहले ही उसके बेटे श्रवण ने लपक कर उसे उठा लिया. "यह गुड़िया किसकी है मम्मी." "मेरी है." सावित्री झिझकते हुए बोली. "इतनी बड़ी होकर तुम गुड़िया से खेलती हो." नन्हा श्रवण कौतुहल से बोला. "बचपन में खेलती थी. सोंचा था तेरी बहन को दूँगी." "तो मेरे लिए बहन क्यों नहीं लातीं. मेरा बहुत मन करता है बहन के साथ खेलने का." उसकी बात सुनकर सावित्री उदास हो गई. गुड़िया वापस लेकर श्रवण को खेलने भेज दिया. उसकी आँखों से कुछ आंसू टपक गए. यह श्रद्धांजली थे उन तीन बच्चियों के लिए जिन्हें गर्भ में ही मार दिया गया था.

स्मार्ट फोन

रमन के सामने पार्सल रखा था. अभी कुछ देर पहले ही उसके स्मार्ट फोन की होम डिलीवरी प्राप्त हुई थी.  उसके बच्चे अक्सर शिकायत करते थे 'पापा कब तक इस पुराने साधारण फोन से चिपके रहेंगे. आप एक स्मार्ट फोन क्यों नहीं ले लेते.'  वह भी जब अपने आस पास ना सिर्फ जवानों को ही नहीं बल्कि हमउम्र लोगों को स्मार्ट फोन चलाते देखता तो खुद के पीछे छूट जाने जैसी भावना मन में आती. अतः उसने भी तय कर लिया कि वह नया फोन खरीदेगा. इससे बाहर रह रहे बच्चों से अच्छी तरह संपर्क में रह सकता था. एक टेलीवीज़न शॉपिंग नेटवर्क का विज्ञापन देख कर उसने दिए गए नंबर पर आर्डर बुक करा दिया.  फोन आ गया था. अब चुनौती उसे चलाना सीखने की थी. पर जहाँ ज़िंदगी में इतनी चुनौतियों का सामना किया है यह तो कुछ भी नहीं. कुछ इसी इरादे से उसने फोन अपने हाथ में उठा लिया और उसे चालू करने की कोशिश करने लगा.

तालमेल

महेश के विवाह के बाद उसकी माँ पहली बार उसके घर रहने आई थीं. महेश यह सोंच कर परेशान था कि माँ और पत्नी के बीच तालमेल कैसे बिठाएगा. उसकी पत्नी स्वतंत्र व्यक्तित्व की थी. उसे अपने फैसले स्वयं लेने की आदत थी. जबकी माँ की सोंच थी कि बहू को हर काम सास से पूँछ कर करना चाहिए. नाश्ते के बाद ऐसी ही स्थिति पैदा हो गई. उसकी पत्नी नौकरानी को सब्जियां लाने के लिए बाजार भेज रही थी. तभी उसकी माँ ने उसे रोकते हुए कहा "ठहरो ऐसे कैसे भेज रही हो बाजार. पहले पूँछ तो लो कौन कौन सी सब्जियां लानी हैं." उनके इस प्रकार टोकने से उसकी पत्नी को बुरा लगा. बात आगे बढ़ने से पहले ही महेश अपनी माँ से बोला "मम्मी जिंदगी भर तो आपने यह सब संभाला है. अब आप आराम कीजिए. यह सब हम लोग देख लेंगे." बेटे के ऐसे बोल सुन माँ आराम से बैठ गईं. महेश ने राहत की सांस ली.

जीत

रोहित कक्षा छह का छात्र था. एक बार उसकी हिंदी की अध्यापिका ने कक्षा के सभी विद्यार्थियों को 'पर्यावरण की सुरक्षा' विषय पर लेख लिख कर लाने को कहा. उन्होंने बताया कि जो लेख सबसे अच्छा होगा वह स्कूल की मैगज़ीन में छपेगा. रोहित अपने सहपाठियों पर रौब झाड़ना चाहता था. अतः उसने इंटरनेट इस विषय पर मौजूद हिंदी लेख में से एक को कॉपी कर पेस्ट कर लिया. फिर उसका प्रिंट निकाल कर उसे अपनी नोटबुक में नकल करने लगा. उसके पापा को जब यह पता चला तो उन्होंने उसे पास बिठाकर समझाया "यह गलत है. गलत तरीके से मिली सफलता कभी आत्मविश्वास नही देती. जबकी अपनी मेहनत से तुम जैसा भी करोगे वह तुम्हारे आत्मविश्वास को बढ़ाएगा." उन्होंने स्वयं इंटरनेट पर पर्यावरण पर मौजूद सारी जानकारी उसे दिखाई और अपने भी कुछ अनुभव बताए. उसके बाद रोहित को उन जानकारियों के आधार पर स्वयं लेख लिखने को कहा. अपने पिता की बात मान कर रोहित ने वैसा ही किया. लेख पूरा होने पर उसके मन में अपनी क्षमता के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ. कुछ दिनों बाद जब अध्यापिका ने बताया कि उसका लेख सबसे अच्छा था व मैगज़ीन के लिए चुना गया है तो वह खुशी ...

चंदा मामा

अंकिता अपनी छह साल की बेटी कनु को सुलाने लगी तो उसने ज़िद की "मम्मी लोरी सुनाओ." अंकिता ने बहुत सोंचा फिर गाने लगी "चंदा मामा दूर के....." उसे बीच में ही रोक कर कनु बोली "मम्मी चंदा को मामा क्यों कहते हैं." "वो इसलिए कि जो बातें हम किसी से नहीं कर पाते हैं वह हम चंद्रमा से कर सकते हैं." "तो क्या चंदा मामा हमारी बात सुनते हैं." "हाँ सुनते हैं. अब चुपचाप सो जाओ." अंकिता ने उसे डांटते हुए कहा. कनु के सो जाने के बाद अंकिता रसोई में चली गई. कुछ देर बाद जब वह लौट कर आई तो उसने देखा कि कनु खिड़की पर खड़ी चंद्रमा से बात कर रही थी "चंदा मामा आप मेरे मम्मी पापा में फिर से दोस्ती करवा दीजिए. मुझे मम्मी पापा दोनों के साथ रहना है." उसकी बात सुन कर अंकिता की आँखें छलक पड़ीं.

राष्ट्रहित

अपनी पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी में आए नेताजी से पत्रकार ने पूँछा "सर आपके दल बदलने का क्या कारण है." "ऐसा मैंने राष्ट्रहित व जनता के फायदे के लिए किया है." नेताजी ने गर्व के भाव से जवाब दिया. "किंतु चार महीने पहले ही आपने नई पार्टी के लिए कहा था कि वह पार्टी राष्ट्रविरोधी है. आपकी पुरानी पार्टी के आदर्श बहुत महान हैं. फिर अचानक सब बदल क्यों गया." पत्रकार ने उन्हें घेरा. प्रश्न सुनते ही नेताजी बगलें झांकने लगे. "मेरा यह फैसला राष्ट्रहित में है. यह आपको जल्दी ही पता चल जाएगा." कहते हुए वह आगे बढ़ गए.

सेंटा क्लॉज़

बंटी को पूरा विश्वास था कि इस क्रिसमस पर सेंटा क्लॉज़ उसके लिए उपहार अवश्य छोड़ कर जाएंगे. इस बार वह अच्छा बच्चा बन कर रहा है. समय पर अपना होमवर्क करता था. मम्मी पापा की सारी बात मानता था. दादाजी को रोज़ उनकी दवाइयां लेने में सहायता करता था. वह पूरी कोशिश कर रहा था कि वह सोए ना सिर्फ सोने का बहाना करे. ताकि वह सेंटा को उपहार रखते देख सके. किंतु सारी कोशिश के बावजूद उसे नींद आ गई. सुबह जब जागा तो सिरहाने एक उपहार रखा था. उसने खोल कर देखा तो रिमोट वाली कार थी. वह सारे घर में उछलता फिर रहा था. सबको कार दिखा रहा था. घर के बड़े एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे.

कमाऊ

नारायण जी और उनका बेटा लगभग एक साथ ही घर में घुसे. नारायण जी रोज़ शाम को कुछ वक्त बिताने के लिए पास के पार्क में जाते थे. लौटते समय रास्ते में पड़ने वाली सब्ज़ी मंडी से तरकारी भी लेते आते थे. उनका बेटा भरत एक कंपनी में क्लर्क था. वैसे रोज़ नारायण जी का लौटना पहले होता था. लेकिन आज उन्हें उनके पुराने मित्र मिल गए थे. उन्हीं से बात करने में देर हो गई. घर के गेट पर ही भरत मिल गया. आज गर्मी बहुत थी. नारायण जी पसीने से तर थे. तेज़ प्यास लगी थी. उन्होंने पत्नी से पानी मांगा. "आप फ्रिज से बोतल निकाल लीजिए. भरत अभी अभी थका हारा आया है. उसे चाय पानी पूंछने दीजिए." नारायण जी कुछ देर चुपचाप खड़े रहे. फिर फ्रिज की तरफ बढ़ गए.

रूप रंग

आज फिर रोहित और रजनी के बीच झगड़ा हुआ. रजनी की नित नई फरमाइशों से वह परेशान हो गया था. रजनी कभी भी इस बात पर विचार नहीं करती थी कि उसकी मांग जायज़ है भी या नहीं. रोहित उसे पूरा करने की स्थिति में भी है या नहीं. वह तो बस फरमाइश करती थी और मांग पूरी ना होने पर झगड़ा करती थी. अब वह इस बात पर अफसोस करता था कि उसने अपने माता पिता की बात नहीं मानी. उन्होंने उसके लिए ऊषा जैसी सुलझी और गुणी लड़की का चुनाव किया था. किंतु उसके सांवले रंग और साधारण नाक नक्श के कारण रोहित ने उसकेे साथ विवाह से मना कर दिया. उसकी चचेरी बहन रजनी से शादी कर ली जो बेहद आकर्षक थी. ऊषा का विवाह उसके मित्र से हो गया. ऊषा जीवन के हर फैसले में उसके साथ रहती थी. दोनों ने मिल कर सारी जिम्मेदारियां बराबरी से बांट ली थीं. दोनों बहुत सुखी थे. रोहित उन्हें देखता तो यही सोंचता कि अपनी सीमित दृष्टि के कारण उसने स्वयं ही अपने जीवन में आग लगा ली.

राह

सौम्य के मित्रों रिश्तेदारों और बड़े से सर्किल में जिसने भी सुना वह चौंक गया. सभी केवल एक ही बात कह रहे थे 'भला यह भी कोई निर्णय हैं.' सबसे अधिक दुखी और नाराज़ उसकी माँ थीं. होतीं भी क्यों नही. पति की मृत्यु के बाद कितनी तकलीफें सह कर उसे बड़ा किया था.  "इसे निरा पागलपन नही तो और क्या कहेंगे. इस उम्र में इतनी सफलता यह ऊपर वाले की कृपा ही तो है. तुम्हारे लिए इन सबका कोई मूल्य नही है." माँ ने बड़े निराश भाव से कहा. "क्यों नही है माँ. मैं ईश्वर का शुक्रगुज़ार हूँ. तभी तो उसकी संतानों की सेवा कर उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ." सौम्य ने अपना पक्ष रखा.  "सारी दुनिया के गरीब बेसहारा लोगों के लिए एक तुम ही तो बचे हो." माँ ने ताना मारा. सौम्य नही जानता था कि वह अकेला है या इस राह के और भी राही हैं. परंतु उसके भीतर एक कीड़ा था जो उसे पिछले कई दिनों से कुछ करने को उकसा रहा था.  ऐसा नही था कि यह निर्णय उसने भावावेश में बिना कुछ सोंचे समझे ले लिया था. दरअसल विद्यार्थी जीवन से ही उसकी सोंच औरों से अलग थी. सदा से ही वह देश और समाज के लिए कुछ करना चाहता...

मेरा फर्ज़

थाना प्रभारी रौशनी ने हवलदार से पूंछा "वह जो नवजात बच्ची हमें सड़क किनारे पड़ी मिली थी उसके माता पिता का कुछ पता चला." "जी नहीं मैडम, कुछ पता नहीं चला." "मीडिया में यह खबर बहुत चर्चा में है. शायद कोई उसे गोद लेने के लिए ही सामने आ जाए." "कोई नहीं आएगा मैडम. यहाँ बेटियों को लोग त्याग देते हैं. अपनाते नहीं हैं." हवलदार ने दार्शनिक भाव से कहा. "अगर कोई सामने नहीं आया तो मैं सोंचती हूँ कि उसे कानूनी तौर पर गोद ले लूँ." रौशनी ने सोंचते हुए कहा. "आपके तो अपने बच्चे हैं. आप क्यों उसे गोद लेंगी." हवलदार का प्रश्न सुन कर रौशनी अतीत में खो गई. पाँच साल की रौशनी को उसके माता पिता रेलवे स्टेशन पर छोड़ कर चले गए. वह कोने में बैठी रो रही थी. तभी एक दंपत्ति की निगाह उस पर पड़ी. दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले थे. पत्नी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए पूंछा "क्या नाम है तुम्हारा बेटा. तुम्हारे माता पिता कहाँ हैं." उसने रोते हुए बताया "मम्मी पापा अभी आ रहे हैं कह कर ना जाने कहाँ चले गए." उन लोगों ने उसे पुलिस के ...

डिग्री

विमल हारा थका फिर उसी छोटे से होटल में पहुँचा जहाँ वह अक्सर चाय पीने के लिए जाता था. होटल के मालिक से पहचान हो गई थी. वह उसकी नौकरी की जद्दोजहद के बारे में जानता था. उसे उदास देख पास आकर बोला "क्या हुआ विमल बाबू आज भी नौकरी नहीं मिली." बिना कुछ बोले विमल ने सिर्फ सर हिला कर हाँ कर दी. होटल का मालिक उसके पास आकर बैठ गया. "हिम्मत मत हारो सब ठीक हो जाएगा." "कुछ ठीक नहीं होगा. अब तो मैं पूरी तरह टूट गया हूँ. मन करता है कि नदी में छलांग लगा दूँ." अपने हाथों से चेहरा छिपा कर वह सिसकने लगा. होटल के मालिक ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे सांत्वना देनी चाही. जब विमल कुछ शांत हो गया तो वह बोला "बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ. नौकरी के लिए भटकने की बजाय तुम अपना कोई काम क्यों नहीं शुरू करते." "कोई काम करने के लिए तो बहुत पैसे चाहिए." "बड़ा नहीं कोई छोटा काम. तुमने बताया था कि तुम बहुत अच्छी चाट बना लेते हो. यदि तुम चाहो तो मैं अपने होटल के बाहर की जगह तुम्हें दे सकता हूँ. पैसों से भी मदद कर दूँगा. मुनाफा आपस में बांट लेंगे." विमल कुछ दे...

असमंजस

समीर समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे. आज उसकी रिपोर्ट देख कर बॉस ने फिर कहा "इसमें थोड़ा और मसाला डालो. टी.आर.पी का सवाल है." उसने तो इस रिपोर्ट के माध्यम से समाज के एक वर्ग की समस्या पर रौशनी डालनी चाही थी. किंतु बॉस को सच्चाई से अधिक मसाला चाहिए. अचानक ही मन में एक प्रश्न गूंजा "कौन हो तुम"  अचानक उठे इस प्रश्न पर पहले तो वह चकित हुआ. फिर इस प्रश्न का औचित्य समझ आया. यह उसकी अंतर्आत्मा थी जो कहना चाहती थी कि जिस उद्देश्य से वह पत्रकार बना था वह पूरा नहीं हो रहा है. उसने खुद को धिक्कारा. वह पत्रकार है चाटवाला नहीं कि लोगों के स्वाद के अनुसार मसाला मिलाए.

सोंच

हरीश हमेशा फैशन के अनुसार ही कपड़े पहनता था. पूड़ी पराठे की जगह पीज़ा बर्गर खाना पसंद करता था. अपने हाव भाव बोल चाल से वह खुद को आधूनिक दिखाने की कोशिश करता था. दोस्तों के बीच वह हैरी के नाम से मशहूर था. इस साल नए साल की पार्टी उसने अपने घर रखी थी. उसके सभी दोस्त उसके घर पर पहुँचे. वह सभी को मकान की ऊपरी मंज़िल पर ले गया. वहाँ सभी संगीत पर थिरकते हुए पार्टी का मज़ा ले रहे थे. तभी एक लड़की वहाँ आई. उयने उससे कुछ कहा. हरीश ने उसे घुड़क कर नीचे जाने को कहा. उसके एक दोस्त ने पूंछा "वह कौन थी." "मेरी बहन थी. पार्टी में आना चाहती थी."  "तो तुमने भगा क्यों दिया. हमारे ग्रुप में तो लड़कियां भी हैं." "हमारे यहाँ लड़कियों का पार्टी करना पसंद नहीं करते." कह कर हरीश फिर से नाचने लगा.

कड़वाहट

अपने दोस्त के घर राजेश बहुत उम्मीदों के साथ आया था. तीन साल के बाद वह अपनी ममेरी बहन मंजरी और अपने दोस्त वासू से मिला था. दोनों ने जाति और क्षेत्र की सारी दीवारों को तोड़ कर घरवालों की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया था. उन्हें साथ लाने में उसने भी मदद की थी. पर आज तो हालात ही बदले हुए थे. दोनों में एक दूसरे के लिए अविश्वास जाग गया था. एक दूसरे के प्यार की कसमें खाने वाले मंजरी और वासू के मन में अब केवल एक दूसरे के लिए शिकायत ही बची थी. यह सब देख कर उसका मन खिन्न हो गया था. चार दिन उनके साथ बिताने के प्लान को स्थगित कर वह अगले ही दिन लौट गया.

मुखाग्नि

एक माह तक बीमारी से जूझने के बाद अमर जी चल बसे. इस एक महीने में उनकी बेटी रुची ने उनकी तीमारदारी में कोई कमी नहीं रखी. बात चाहें डॉक्टरों से मिलने की हो, टेस्ट करवाने की या रात में अस्पताल में ठहरने की. उसने सब अकेले दम किया. अमर जी ने भी उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रखी थी. अच्छी शिक्षा दिलाई थी. जिसके कारण आज वह स्वावलंबी बन सकी थी. आँगन में अमर जी का शव रखा था. सभी इस बात की चर्चा कर रहे थे कि चिता को आग कौन देगा. बेटा तो कोई है नहीं. लगता है जिस भतीजे के खराब चाल चलन के कारण उससे नाराज़ थे वही मुखाग्नि देगा. सभी अटकलों को समाप्त करते हुए रुची ने ऐलान किया "पापा को मुखाग्नि मैं दूंगी." आश्चर्य और विरोध के कुछ मिले जुले स्वर उभरे पर रुची के अटल इरादे के आगे हार गए.

खोखली व्यवस्था

स्थानांतरण पर जब निखिल अपने शहर वापस आया तो अपने बेटे कमल के दाखिले के लिए अपने पुराने स्कूल का चुनाव किया. छात्रों को संस्कार, मर्यादा एवं अनुशासन का पाठ पढ़ाना ही स्कूल का प्रमुख लक्ष्य था. शिक्षक छात्रों के विकास पर उसी प्रकार ध्यान देते थे जैसे माता पिता देते हैं. यही कारण था कि उसके जैसा औसत छात्र इस मुकाम तक पहुँच सका था.  कमल का स्कूल में दाखिला करा कर वह निश्चिंत था कि उसका बेटा सही हाथों में है. किंतु तिमाही परीक्षा का परिणाम देख वह बहुत निराश हुआ. कमल गणित में फेल था. निखिल ने उसे डांट लगाई "तुम्हारा मन अब पढ़ने में नहीं लगता है." कमल सहमते हुए बोला "मैं बहुत कोशिश करता हूँ. पर कुछ पाठ मेरी समझ नहीं आते." "तो टीचर से क्यों नहीं पूंछते."  "मैं पूंछता हूँ तो वह बताते नहीं हैं." कमल ने अपनी बात रखी. निखिल को लगा कि वह झूठ बोल रहा है. उसे डांटते हुए बोला "चुप करो. खुद की गल्ती मानने की बजाय टीचर को दोष दे रहे हो." कमल चुप हो गया और अपने कमरे में चला गया. अगले दिन निखिल स्कूल जाकर कमल के गणित के टीचर से मिला और उनसे कमल की समस्या ...

निज भाषा

अमर की नियुक्ति शहर के एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में हिंदी शिक्षक के तौर पर हुई. यह देख कर उसे दुःख हुआ की हिंदी भाषा के प्रति विद्यार्थियों में कोई लगाव नहीं था.  हिंदी को केवल ऐसे विषय  के रूप में देखते थे जिसमें केवल उत्तीर्ण हो जाना ही बहुत था. अमर इस  स्तिथि को बदल देना चाहता था. स्कूल में विद्यार्थियों के के चहुँमुखी विकास के लिए पाठ्यक्रम के अतिरिक्त और भी गतिविधियां होती थीं. इसके लिए विद्यार्थियों को अलग से ग्रेड दिया जाता था.  प्रधानाचार्य से कह कर अमर ने स्कूल में हिंदी माह मनाने का फैसला किया. इसके तहत हिंदी में वाद विवाद, लेखन एवं हिंदी साहित्य पर परिचर्चा को शामिल  किया गया. अच्छे ग्रेड के लिए विद्यार्थियों ने पुस्तकालय में जाकर हिंदी की पुस्तकें पढना शुरू किया. धीरे धीरे  उनकी रूचि हिंदी साहित्य में बढ़ने लगी. अब बहुत से विद्यार्थी ग्रेड के लिए नहीं बल्कि प्रेम के कारण हिंदी पढ़ते थे. नतीजा  यह हुआ कि स्कूल की पत्रिका में हिंदी का खंड जोड़ा गया जिसमें विद्यार्थियों ने बढ़ चढ़ कर लिखा.

हरे पत्ते

पत्नी के देहांत से चालीस सालों का साथ टूटने से बख़शी जी भी टूट गए. दिन भर वह अपने कमरे में पड़े रहते थे. किसी से कोई बातचीत नहीं करते थे. दिन पर दिन कमज़ोर होते जा रहे थे. परिवार में सभी दुखी थे. उनके कमरे के बाहर गमले में लगा पौधा भी मुर्झा रहा था. वह उनकी पत्नी का रोपा हुआ था. माली ने सलाह दी कि यदि खाद पानी दिया जाए और सही धूप मिले तो अभी भी बच सकता है. माली ने पौधे पर काम करना शुरू किया. सारा परिवार बख़शी जी की देखभाल में लग गया. स्नेह की गुनगुनाहट काम कर गई. आज बहुत दिनों के बाद बख़शी जी बाहर बरामदे में बैठे बच्चों को खेलते देख रहे थे. पौधे में भी हरे हरे पत्ते निकल रहे थे .

नफरत की आग

मिलने का वक्त समाप्त हो गया. जाती हुई पत्नी की उदास आंखें उसे भीतर तक भेद गईं. अभी कितना कुछ कहने सुनने को बाकी था. लेकिन मजबूरी थी. मिलने का समय तय था. उससे ऊपर किसी को ठहरने नहीं देते. उसकी नफरत की आग ने सब कुछ खत्म कर दिया. हंसता खेलता उसका परिवार तबाह हो गया. जिसकी उसने हत्या की वह तो चला ही गया लेकिन उसका और उसके परिवार का जीवन इस आग में अब बरसों जलेगा.

स्वयंसिद्धा

एक ही शहर में उमादेवी का अपने बेटे के साथ ना रह कर अकेले रहना लोगों के गले नही उतर रहा था. लेकिन अपने निर्णय से वह पूरी तरह संतुष्ट थीं. इसे नियति का चक्र कह सकते हैं किंतु उन्होंने अपने जीवन में कई संघर्षों का सामना अकेले ही किया था.  जब पिता की सबसे अधिक आवश्यक्ता थी वह संसार से कूच कर गए. घर का भार उनके अनुभवहीन कंधों पर आ गया. उस संघर्ष ने जीवन को कई उपयोगी अनुभव दिए. मेहनत कर स्वयं को स्थापित किया तथा यथोचित भाई बहनों की भी सहायता की.  जब सब स्थितियां कुछ सम्हलीं तो उन्होंने माँ के सुझाए रिश्ते के लिए हामी भर दी. पति को समझने का प्रयास जारी ही था कि एक नन्हे से जीव ने कोख में आकार लेना शुरू कर दिया. वह बहुत प्रसन्न थीं. सोंचती थीं कि सदैव अपने में खोए रहने वाले पति को यह कड़ी उनसे बांध कर रखेगी. किंतु अभी संतान के जन्म में कुछ समय शेष था तभी पति सारी ज़िम्मेदारियां उन पर छोड़ किसी अनजान सत्य के अन्वेषण में निकल गए. एक बार फिर जीवन के झंझावातों का सामना करने के लिए वह अकेली रह गईं.  हाँ अब संघर्ष कम है. बेटे के फलते फूलते जीवन को देख गर्व होता है. उन्हें सबसे प्रेम भ...

सच की जीत

रोहन अपना पाठ पढ़ रहा था. उसने अपनी मम्मी से पूंछा "इसमें लिखा है कि गाँधीजी ने सत्याग्रह किया था. यह सत्याग्रह क्या होता है." उसकी मम्मी ने समझाया "जब हम किसी गलत काम का शांतिपूर्वक विरोध करते हुए सच का साथ देते हैं तो इसे सत्याग्रह कहते हैं." "गाँधीजी ने सत्याग्रह क्यों किया था." रोहन ने कौतुहल से पूंछा. "अंग्रेजों ने हमारे देश पर कब्जा कर लिया था. वह यहाँ की जनता पर अत्याचार करते थे. उनका विरोध करने के लिए उन्होंने सत्याग्रह किया था." रोहन कुछ सोंचते हुए बोला "तो मैं भी सत्याग्रह करूँगा." उसकी बात सुनकर उसकी मम्मी हंसते हुए बोली "तुम क्या अपनी पॉकेटमनी बढ़वाने के लिए सत्याग्रह करोगे." रोहन गंभीरता से बोला "आज आप ने कामवाली आंटी को पैसे देते समय चार दिन की सैलरी काट ली. जबकि उनका बेटा बीमार था. यह गलत है. इसलिए मैं सत्याग्रह करूँगा."

रिटायर्ड

भवानी बाबू अवकाशग्रहण के करीब तीन माह  बाद अपने पुराने दफ्तर आए थे. सोंचा चलो उन लोगों से मिल लें जिनके साथ पहले काम किया था. कितनी धाक थी उनकी यहाँ. सब उन्हें देख कर खड़े हो जाते थे. किंतु आज सभी अपने काम में लगे रहे. कुछ एक लोगों ने बैठे बैठे ही मुस्कुराहट उछाल दी. चपरासी जो उन्हें देखते ही दौड़ता था आज नजरें चुरा रहा था. उन्होंने ही आगे बढ़ कर उसका हाल पूंछा तो उसने भी नमस्ते कर दी.  भवानी बाबू ने कहा "मकरंद साहब भीतर हैं क्या." "हाँ भीतर हैं." चपरासी ने उत्तर दिया.  मकरंद भवानी बाबू का जूनियर था. उनके अवकाशग्हण के बाद आज उनके रिक्त किए गए पद पर था. मकरंद अक्सर कहा करता था कि भवानी बाबू को वह अपना आदर्श मानता है. दस्तक देकर वह भीतर चले गए. उन्हें देख कर वह अपनी जगह पर बैठे हुए ही बोला "आइए भवानी बाबू. कोई काम था क्या." "नहीं बस यूं ही मिलने आ गया." "क्या करें आजकल तो ज़रा भी फुर्सत नहीं मिलती. बहुत काम है. आप कुछ लेंगे" मकरंद ने काम करते हुए कहा. "नहीं, चलता हूँ." कहते हुए भवानी बाबू कमरे के बाहर आ गए.

खोया पाया

सरिता स्टोर रूम की सफाई करवा रही थी. जो सामान काम का नहीं था उसे अलग रखवा रही थी. बहुत सा बेकार सामान बाहर निकाला जा चुका था. तभी मेड ने एक गत्ते का बक्सा निकालते हुए पूंछा "इसका क्या करना है." सरिता ने बक्से नें हाथ डाला तो घुंघरू का एक जोड़ा उसके हाथ आया. उन्हें देखते ही यादों का एक झोंका उसके दिल को सहला गया. बीस साल हो गए एक बहू एक पत्नी और एक माँ की भूमिका निभाते हुए वह स्वयं को भूल गई थी. आज फिर वह क्लासिकल डांसर उन यादों में जीवित हो गई थी.

हरफनमौला

विपिन की एक आदत उसके जानने वालों को अच्छी नहीं लगती थी. वह यह जतलाने की कोशिश करता था कि दुनिया का हर काम वह आसानी से कर सकता है. जब भी कोई किसी के हुनर की तारीफ करता तो वह बीच में ही बोल पड़ता "यह कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है. आराम से किया जा सकता है." उसकी यह आदत उसकी साली को सख़्त नापसंद थी.  एक बार विपिन अपनी ससुराल में था. सभी बातचीत कर रहे थे. तभी उसके छोटे साले ने आकर कहा "अचानक कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर में कोई खराबी आ गई है. मुझे एक जरूरी प्रोजक्ट बनाना है." उसकी साली ने कहा "अगर प्रकाश भाईसाहब होते तो कंप्यूटर ठीक कर देते." उसकी बात सुनते ही विपिन बोल उठा "अरे इसमें कौन सी बड़ी बात है." यह सुनते ही उसकी साली खीझ कर बोली "तो जीजाजी आप ही ठीक कर दीजिए." यह सुनते ही विपिन खिसिया गया "वो मेरा सर दर्द कर रहा है. वरना यह काम बहुत मुश्किल नहीं है."

कट्टी बट्टी

शाम हो गई थी बंटू बाहर खेलने जाने की बजाया एक किताब पढ़ रहा था. उसकी मम्मी जब कमरे में आईं तो उन्होंने आश्चर्य से पूंछा "क्या बात है. बाहर खेलने नहीं गए. तबीयत तो ठीक है." "मैं उन लोगों के साथ नहीं खेलूंगा. सब बेइमानी करते हैं." बंटू ने किताब में सर घुसाए हुए कहा. "ऐसा नहीं कहते. वह सब तुम्हारे दोस्त है." मम्मी ने समझाया. बंटू ने गुस्से से कहा "कोई मेरा दोस्त नहीं. मेरी सबसे कुट्टी है." उसकी मम्मी काम में लग गईं. बंटू किताब पढ़ने लगा. बाहर से बच्चों के खेलने की आवाज़ें आ रही थीं. बंटू ने अपना ध्यान वहाँ से हटाने की कोशिश की. कुछ देर वह किताब लिए बैठा रहा. फिर किताब बंद कर बाहर आ गया. गली में खेलते बच्चे दिखाई दे रहे थे. वह घर के गेट पर जाकर खड़ा हो गया. कोई भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था. उसने धीरे से गेट खोला और गली में आ गया. पप्पू  ने शॉट मारा. गेंद उसके पास आकर गिरी. उसने गेंद उठाई और बच्चों की तरफ उछाल दी.  पप्पू बोला "खेलोगे , पर फील्डिंग करनी पड़ेगी." बंटू ने कुछ सोंचने का नाटक करते हुए कहा "ठीक है पर तुम लोग आगे से बेइमा...

सैलाब

लेखक उग्र की नई किताब सैलाब के लिए उन्हें सम्मानित किया जा रहा था. सभी तरफ उसकी तारीफ कर रहे थे. इस गहमा गहमी के बीच वह अपने जीवन के विषय में विचार करने लगे. एक छोटे से गांव में पिछड़े वर्ग के एक गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ था. समाज के भेदभाव पूर्ण रवैये ने जो अपमान एवं तिरस्कार दिया उसने मन में एक पीड़ा को जन्म दिया. किंतु इस पीड़ा से उपजे आंसुओं को उन्होंने अपने ह्रदय में जज़्ब कर लिया. अपने विचारों की भट्टी में तपाया. इसी का परिणाम था कि उनकी लेखनी उनके जैसे अनेक शोषित लोगों की आवाज़ बन गई. जो आज वह सैलाब लेकर आई थी जो समाज में परिवर्तन को जन्म देगा.

ए.टी.एम

महेश जैसे ही घर में घुसा माँ ने सवाल दागा "मेरी चार धाम यात्रा का कोई इंतजाम हुआ कि नहीं." महेश ने थके हुए स्वर में कहा "अभी नहीं माँ. मैं कोशिश कर रहा हूँ. पर इधर खर्चे इतने हैं कि कुछ हो नहीं पा रहा है." उसकी माँ साड़ी के पल्ले से अपनी आँखें पोंछती हुई बोली "जीवन खपा दिया कि तुम कुछ बन सको. अब छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकती." यह कह कर वह अपने कमरे में चली गईं.  महेश आँखें मूंद कर बैठ गया. तभी पत्नी पानी लेकर आई. उसके बगल में बैठते हुए बोली "मेरी बरेली वाली मौसी का फोन आया था. बीस तारीख को उनके बेटे की शादी है. जाना पड़ेगा." "तो चली जाना." महेश ने आँखें मूंदे हुए कहा. "चली जाना का क्या मतलब. मेरे और बच्चों के लिए नए कपड़े खरीदने पड़ेंगे. फिर वहाँ कुछ भेंट भी देनी होगी." पत्नी ने फरमाइश की. "इन सब पर तो बहुत खर्च हो जाएगा. पैसे कहाँ हैं. माँ भी तीर्थ पर ना जाने के कारण नाराज हैं." महेश ने अपनी परेशानी बताई. पत्नी तुनक कर बोली "जब देखो पैसों का रोना रोते हो. मैं क्या सारी जिंदगी अपनी इच्छाएं मार कर रहूँगी....

बचत

बबलू ने ददाजी के कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई. सब कुछ व्यवस्थित हो गया था. दादाजी के लिखने पढ़ने की मेज़ पर सब सामान करीने से लगा था. उनकी पसंदीदा किताबें अलमारी में सही प्रकार से सजी थीं. अपने काम से बबलू  मन ही मन संतुष्ट था. अब केवल गमलों में पानी देना बाकी था. वह पौधों को पानी देने के लिए चला गया. दादाजी का बेटा और बहू विदेश में रहते थे. पत्नी को गुजरे कई साल बीत गए थे. गांव में उनकी कुछ खेती थी. जिसे उन्होंने बटाई पर दे रखा था. इसी बहाने साल में कुछ दिन गांव के खुले वातावरण बिता आते थे.  दो बरस पहले जब वह गांव गए थे तब बबलू को अपने साथ ले आए थे. उनका अकेलापन भी दूर हो गया था और छोटे मोटे काम भी हो जाते थे.  बबलू के पिता खेत मजदूर थे. सर पर बहुत कर्ज़ था. इसलिए यह सोंच कर कि उन्हें कुछ मदद मिल जाएगी उसके पिता ने उसे ददाजी के साथ भेज दिया था.  बबलू जब आया था तब उसकी छोटी बहन केवल चार माह की थी. हर बार जब उसके पिता उसकी पगार लेने आते थे तो वह उनसे उसके बारे में ढेरों सवाल पूंछता था. मन ही मन वह कैसी दिखती होगी उसकी कल्पना करता रहता था. अपनी बहन को वह बहुत चाहता ...

मौन बर्फ

पुलिस हिरासत में बैठी दीप्ती पूर्णतया मौन थी. उसके भीतर का तूफान थम चुका था. उसने जो किया उसके लिए उसे कोई अफसोस नहीं था. वह अपने पिछले जीवन के बारे में सोंचने लगी. वह बी. ए. के अंतिम वर्ष में थी जब दिलीप ने एक विवाह समारोह में उसे देखा था. पहली ही नज़र में वह उसे पसंद करने लगा था. दोनों के बीच मुलाकातों का दौर शुरू हो गया. हर मुलाकात उन्हें एक दूसरे के और करीब ले आती थी. दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया. दिलीप का इस दुनिया में कोई नहीं था. अतः उसने स्वयं ही दीप्ती के माता पिता से दोनों के रिश्ते की बात चलाई. उसकी सौम्यता दीप्ती के पिता को बहुत अच्छी लगी. बिजनेस भी अच्छा चल रहा था. अतः दीप्ती के माता पिता ने उनके विवाह के लिए हाँ कर दी.  दीप्ती और दिलीप ने मिलकर खुशियों भरा एक संसार बसाया. दिलीप उसे पलकों पर बिठा कर रखता था. उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता था. उनके इस खूबसूरत संसार में उनकी बेटी परी के प्रवेश से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया. इस तरह का सुखपूर्वक दस साल बीत गए. किंतु उनकी खुशियों को अचानक जैसे किसी की नज़र लग गई. एक बिजनेस टूर से लौटते हुए सड़क हादसे में दिलीप की मृत...

वान्यप्रस्थ

गुप्ता जी का मन दुखी था. चालीस साल जिसका साथ निभाय वह भी आज उन्हें गलत ठहरा रही थी. वह सोंच रहे थे उन्होंने कुछ अनुचित तो नहीं कहा था. उनका जीवन बहुत संघर्षमय रहा. बहुत कष्ट झेल कर पाई पाई बचा कर यह सब संजोया था. बेटे का बिना सोंचे समझे खर्च करना उन्हें ठीक नहीं लगा. अतः पिता होने के नाते उन्होंने समझाया  "बेटा ज़रा सोंच समझ कर खर्च किया करो. पैसा बड़ी मुश्किल से आता है किंतु जाता बहुत आसानी से है." "देखिए पापा मैं कोई बच्चा नहीं हूँ. मैं भी सब समझता हूँ. आप प्लीज़ यह लेक्चर मत दिया करिए." बेटे ने झल्लाकर कहा और वहाँ से चला गया. गुप्ता जी आवाक रह गए. उन्होंने पास बैठी पत्नी से कहा "देखो तो यह कैसे बोल रहा है." "आप भी तो समझने का प्रयास नहीं करते हैं. इस उम्र मे शांति से जीवन बिताने की बजाया बच्चों के जीवन में बेमतलब दखलंदाज़ी करते हैं." पत्नी ने शब्दों के तीर चलाते हुए कहा.

कठफोड़वा

सूरज दूसरी बार भी पुलिस की भर्ती परीक्षा में पास नहीं हो सका. भाभी के तंज और आस पड़ोस के बेवजह सवालों से वह तंग आ गया था. हताशा उस पर हावी हो गई थी. उसने मन बना लिया कि अब वह और प्रयास नहीं करेगा. सोंचने लगा यदि माँ जीवित होती तो उसके दुखी मन को सांत्वना देती. पर माँ को गुज़रे तो कई साल बीत गए.  अपने परेशान मन को शांत करने के लिए वह  नदी किनारे आकर बैठ गया. मंद पवन के झोंके बहुत सुखद लग रहे थे. उसे लगा जैसे माँ उसके माथे को थीरे धीरे सहला रही हो. उसे झपकी लग गई.  कुछ झणों के पास जब वह जागा तो उसने देखा कि एक कठफोड़वा पेड़ के तने पर लगातार चोंच से प्रहार कर रहा था. उसके मन में विचार आया कि प्रकृति ने भी कैसे कैसे जीव बनाए हैं. लगातार प्रयास से यह पक्षी तने में छेद कर अपना घोंसला बनाएगा. वह प्रकृति की इस आश्चर्यजनक रचना पर मुग्ध था. तभी मन से आवाज़ आई 'तुम तो दूसरे प्रयास में ही हार मान गए.' मन की सारी हताशा दूर हो गई. अब उसे किसी के तानों या उपहास की परवाह नहीं थी. एक इरादे के साथ वह उठा और अपना मस्तक भूमि पर लगा कर प्रकृति माँ को प्रणाम किया.

भटकाव

जतिन ने माइक्रोवेव में खाना गर्म किया और डाइनिंग टेबल में बैठ कर खाने लगा. इस तरह अकेले खाते हुए उसे अच्छा नहीं लग रहा था.  इधर कुछ महीनों से उसे अपना अकेलापन बहुत खलने लगा था. वह अपने जीवन के बारे में सोंचने लगा. जवानी में उसने कभी भी अपने जीवन में एक साथी की कमी को महसूस नहीं किया था. वह अपने में ही मस्त था. उसे लगता था कि जीवन का आनंद एक जगह ठहरने में नहीं बल्की भ्रमर की तरह एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराने में है. इस बीच उसके ना जाने कितने प्रेम प्रसंग हुए किंतु वह किसी भी रिश्ते को लेकर गंभीर नहीं रहा.  उन्हीं दिनों में जया उसके जीवन में आई. वह बहुत ही सौम्य और सादगी पसंद थी. उसकी सादगी में एक आकर्षण था. जतिन उसकी खूबसूरती का दीवाना हो गया. जया  उसकी ही कंपनी में काम करती थी. वह इस रिश्ते को लेकर गंभीर थी और उसे एक मुकाम तक ले जाना चाहती थी. लेकिन जतिन का चंचल मन फिर भटकने लगा था. इस बात से जया बहुत आहत हुई. उसने वह नौकरी छोड़ दी और दूसरे शहर में चली गई. जतिन का भटकना जारी रहा. वह किसी भी रिश्ते में अधिक नहीं ठहरता था. उसके मित्रों व शुभचिंतकों ने समझाना चाहा कि यह भट...

असहजता

दरवाज़ा खोलते ही सोनल ने सामने पापा को देखा तो उनकी छाती से लग गई. पापा उसके इस नए फ्लैट में पहली बार आए थे. चाय नाश्ते के बाद वह उन्हें पूरा फ्लैट दिखाने लगी. फ्लैट दिखाते हुए वह बड़े उत्साह के साथ सभी चीज़ों का बखान कर रही. फ्लैट दिखा लेने के बाद उसने मेड को डिनर के लिए कुछ आदेश दिए फिर बैठ कर पापा के साथ बातें करने लगी. बातें करते हुए उसके पापा ने पूंछा "अभी तक दामाद जी घर नही आए." "पापा बिज़नेस इतना बढ़ गया है कि कई बार ऑफिस में ही रुकना पड़ता है." सोनल ने सफाई दी. उसके पापा ने आगे बढ़ कर उसके सर पर हाथ रख दिया. कुछ क्षणों तक पिता पुत्री खामोश रहे. "अभी तुम्हारे पापा हैं." उसके पापा ने स्नेहपूर्वक कहा. सोनल की आंखें नम हो गईं.