नर्स ने लाकर दवाइयों का एक नया पर्चा अनिल को थमा दिया. अंदर आई सी यू में उसका सत्रह साल का बेटा ज़िंदगी की जंग लड़ रहा था. पर्चा लेकर वह नीचे केमिस्ट शॉप की तरफ भागा. दवाइयां लाकर उसने नर्स को दे दीं. वह बाहर बेंच पर बैठ गया.
अनिल बहुत परेशान था. इस बार भी दवाइयां और इंजेक्शन बहुत महंगे थे. वह फिक्रमंद हो गया. इस तरह कितने दिन वह इलाज करा पाएगा. चार दिन हो गए पर हालत में कोई सुधार नही हुआ. यदि इलाज लंबा चला तो उसके पास इतनी पूंजी भी नही कि अस्पताल के बिल चुका सके. जरूरत पड़ने पर किसके सामने हाथ फैलाएगा. यह सारी बातें मन ही मन उसे चुभ रही थीं.
वह अन्य विकल्प पर विचार करने लगा. एक रास्ता हो सकता था. इस मंहगे अस्पताल से निकाल कर वह अपने बेटे को किसी सरकारी अस्पताल में ले जाए. लेकिन अभी उसकी हालत बहुत नाज़ुक थी. फिर यदि वहाँ सही देख भाल ना हो सकी तो. वह डर गया. उसने मन में सोंचा 'नही वह अपने बेटे के जीवन को खतरे में नही डाल सकता.' मन ने फिर तर्क किया 'परंतु पैसे की कमी को भी तो नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता.' मन के इस तर्क वितर्क में वह उलझ गया.
उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे. बेबसी के इस आलम में उसने खुद को उस अनदेखी शक्ति के सुपुर्द कर दिया.
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