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हितैषी

विपिन की फरमाइश पर रीमा उसके लिए अदरक वाली चाय बना रही थी।
रीमा के पति की मृत्यु अभी दो महीने पहले ही हुई थी। विपिन उसके पति का चचेरा भाई था। कॉलेज में दोनों एक साथ पढ़ते थे इसलिए वह रीमा को भाभी कहने की जगह नाम से बुलाता था।
रीमा ट्रे लेकर आई तो केवल एक प्याला देख कर विपिन बोला "ये क्या? तुम नहीं पिओगी।"
रीमा ने कहा कि उसकी इच्छा नहीं है।
"भइया के फंड वगैरह का काम कहाँ तक पहुँचा।" विपिन ने घूंट भरते हुए पूंछा। 
"चल रहा है।" रीमा ने धीरे से कहा। ऐसा लग रहा था कि वह मन ही मन किसी सोंच में उलझी थी।
विपिन को लगा कि वह अपने आप को अकेला महसूस कर रही है। 
"तुम परेशान मत हो मैं छुट्टी लेकर तुम्हारे साथ चलूँगा।"
रीमा कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोली "विपिन तुम यहाँ ना आया करो।"
चाय का प्याला होठों तक जाकर लौट आया। विपिन के मुंह से केवल इतना निकल सका "क्यों?"
रीमा ने सर झुकाए हुए कहा "मैं लोगों को यह नहीं समझा सकती कि तुम केवल मेरे हितैषी हो। रिश्ते स्वार्थ से परे भी हो सकते हैं।"
उसके बाद विपिन के लिए बची हुई चाय पी सकना भी कठिन हो गया।

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