प्रसिद्ध धार्मिक स्थान के एक विधवा आश्रम में अलग अलग उम्र की औरतें दियों के लिए बाती बना रही थीं।
एक वृद्धा पास बैठी तरुण विधवा से बोली "बिटिया अपने भाग्य को स्वीकार कर ले। करम की गति टाली नहीं जा सकती है।"
तरुणी बिना कुछ बोले वैसे ही बातियां बनाती रही। शादी के दो साल के भीतर वह विधवा हो गई। ससुराल वालों ने रखने से इंकार कर दिया तो बूढ़ा पिता यहाँ छोड़ गया। यहाँ उसकी दिनचर्या सुबह उठ कर मंदिर की सफाई करना व सबके साथ मिलकर दियों के लिए बाती बनाना थी। इसके अतरिक्त छोटे मोटे काम भी करने पड़ते थे। इस सबके बदले उसे थोड़े से चावल मिलते थे पेट भरने के लिए। वह इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
वृद्धा ने फिर समझाया "हमारे लिए अब कुछ नहीं बचा। मैं तो पिछले चालीस साल से यहाँ हूँ।"
"अजिया मैं अपनी तकदीर से समझौता नहीं करूँगी। उस दिन जो दीदी आईं थीं कह रही थीं कि हिम्मत करो तो नई राह मिलेगी। मैं उनसे सिलाई सीख कर पैरों पर खड़ी होऊँगी।" तरुणी निश्चय के साथ बोली।
एक वृद्धा पास बैठी तरुण विधवा से बोली "बिटिया अपने भाग्य को स्वीकार कर ले। करम की गति टाली नहीं जा सकती है।"
तरुणी बिना कुछ बोले वैसे ही बातियां बनाती रही। शादी के दो साल के भीतर वह विधवा हो गई। ससुराल वालों ने रखने से इंकार कर दिया तो बूढ़ा पिता यहाँ छोड़ गया। यहाँ उसकी दिनचर्या सुबह उठ कर मंदिर की सफाई करना व सबके साथ मिलकर दियों के लिए बाती बनाना थी। इसके अतरिक्त छोटे मोटे काम भी करने पड़ते थे। इस सबके बदले उसे थोड़े से चावल मिलते थे पेट भरने के लिए। वह इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
वृद्धा ने फिर समझाया "हमारे लिए अब कुछ नहीं बचा। मैं तो पिछले चालीस साल से यहाँ हूँ।"
"अजिया मैं अपनी तकदीर से समझौता नहीं करूँगी। उस दिन जो दीदी आईं थीं कह रही थीं कि हिम्मत करो तो नई राह मिलेगी। मैं उनसे सिलाई सीख कर पैरों पर खड़ी होऊँगी।" तरुणी निश्चय के साथ बोली।
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