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अो राही


राजेश स्टेशन पर उतरा. ऑटो वाले को पैसे देकर अंदर जाने लगा. तभी नज़र फुटपाथ पर लगे किताबों के ढेर पर पड़ी. एक तख़्ती टंगी थी जिस पर लिखा था 'सस्ते में किताबें'. ट्रेन आने में अभी समय था. उसने सोंचा एक आध किताब ले लूँ. शायद इसी से मन बहल जाए.
वह उस ढेर में से किताबें चुनने लगा. दुकानदार एक सत्रह अठ्ठारह साल का लड़का था. अलग रखे एक ढेर से किताब उठाते हुए बोला "यह देखिए साहब अकेले सफर करने वाले यह बहुत पसंद करते हैं."
राजेश ने उस पर दृष्टि डाली तो उसे गुस्सा आ गया. डपट कर बोला "उसे रखो मैं खुद ढूंढ़ लूँगा."
खोजते हुए एक कविता संग्रह उसने चुन लिया. कवि का नाम उसने पहले कभी नही सुना था. पैसे चुका कर उसने किताब बैग में रख ली.
ट्रेन में बैठे हुए वह अपनी ज़िंदगी के बारे में सोंचने लगा. इन दिनों बहुत परेशान था. व्यापार में उसे बड़ा नुकसान हुआ था. इस नुकसान की खीझ वह अक्सर अपनी पत्नी पर उतारता था. नतीजा यह हुआ कि वह उसे छोड़ कर अपने मायके में रहने चली गई. अब टूटे रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयास करने जा रहा था.
मानसिक रूप से बहुत परेशान था वह. आत्मविश्वास पूरी तरह से डिगा हुआ था. हर तरफ सिर्फ निराशा ही दिखाई पड़ रही थी. सारी परेशानियां एक साथ ही मन को विचलित कर रही थीं.
अपने मन को सभी परेशानियों से हटाने के मकसद से उसने वह किताब निकाल कर पढ़ना आरंभ किया. किताब का शीर्षक था 'ओ राही'. छोटी छोटी कविताएं थीं. कुछ एक कविताएं पढ़ने के बाद ही उसे लगने लगा कि यह सोंच साधारण नही है. तीन चार लाइनों में ही जीवन जीने की बहुमूल्य सीख दी गई थी. जैसे जैसे शब्द उसके भीतर उतर रहे थे मन का अवसाद कम हो रहा था. किताब के अंत तक आते आते वह अपने भीतर अलग स्फूर्ति महसूस कर रहा था.
स्टेशन पर उतर कर उसने तय किया पहले वह टूटे हुए रिश्ते को जोड़ने का पूरा प्रयास करेगा. उसके बाद वह अन्य बिखरे हिस्सों को समेटेगा.

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