ट्रेन सरहद के पास एक छोटे से स्टेशन पर आकार रुकी। मुकुंद इस स्टेशन पर उतरने वाला इकलौता शख़्स था।
मुकुंद ने घड़ी देखी। सुबह के सवा नौ बजे थे। किंतु स्टेशन इतना शांत और खाली था जैसे रात के ढाई बजे हों। उसने इधर उधर देखना शुरू किया। सामने ही स्टेशन मास्टर का कमरा था। वह कमरे में चला गया।
स्टेशन मास्टर एक स्थूलकाय व्यक्ति था। मुकुंद को सर से पांव तक देखते हुए उसने पूँछा "भाई जवान हो। घूमना था तो किसी पहाड़ पर जाते यहाँ क्या करने आए हो।"
मुकुंद ने उसकी बात का जवाब दिए बिना पूँछा "मुझे वसीमगढ़ जाना है। वहाँ कैसे पहुँचा जा सकता है।"
स्टेशन मास्टर ने सीधा जवाब देने की बजाय फिर सवाल किया "वहाँ क्यों जाना चाहते हो। वहाँ की कहानियों नही सुनीं। कोई बाहरी आदमी जाना पसंद नही करता वहाँ। एक नंबर के बदमाश हैं वसीमगढ़ के लोग।"
मुकुंद को इस प्रकार उसका सवाल करना अच्छा नही लगा। कुछ रूखे सुर में बोला "वह सब मैं देख लूँगा। आप बस यह बताइए कि मुझे बस कब और कहाँ से मिलेगी।"
मुस्कुराते हुए स्टेशन मास्टर बोला "नाराज़ क्यों होते हो। तुम बाहर से आए हो इसीलिए कहा। रहा सवाल बस का तो वह तो दोपहर एक बजे आएगी। स्टेशन के बाहर दाईं तरफ करीब आधे किलोमीटर पर बस अड्डा है।"
अभी सुबह के साढ़े नौ बजे थे। मुकुंद सोंचने लगा इतनी देर वह कहाँ रहेगा। अपने स्वर में मुलायमियत लाते हुए वह बोला "दरअसल थकावट की वजह से थोड़ा उत्तेजित हो गया था। माफी चाहता हूँ।"
"कोई बात नही। तुम जैसा जवान आदमी ऐसी बीहड़ जगह आकर परेशान हो जाता है।"
"क्या यहाँ आसपास कोई ठहरने की जगह मिलेगी। अभी तो बस के आने में बहुत देर है।" मुकुंद ने सवाल किया।
स्टेशन मास्टर ने हंसते हुए कहा "यहाँ इस स्टेशन के अलावा और कोई जगह ठहरने लायक नही है।"
यह सुनकर मुकुंद परेशान हो गया। यहाँ इतनी देर कैसे बिताएगा। वह चाह रहा था कि फ्रेश होने के बाद कुछ खाकर आराम करे। यहाँ तो ऐसी कोई सुविधा नही थी।
उसकी परेशानी को भांपते हुए स्टेशन मास्टर अपनी जगह से उठा और उसे कमरे के बाहर ले गया। स्टेशन के एक कोने मे एक हैंडपंप लगा था। उसे दिखाते हुए बोला "यहाँ हाथ मुंह धो सकते हो। कुछ देर में खलासी आएगा। वह मेरे लिए चाय बनाएगा तो एक प्याला तुम्हें भी दे दूंगा। इससे अधिक तुम्हारी मदद मैं नही कर सकता।"
कोई और चारा नही था। उसने स्टेशन मास्टर को धन्यवाद दिया। हैंडपंप पर मुंह हाथ धोने के बाद वह प्लेटफार्म की बेंच पर बैठ गया। उसे याद आया कि बैग में ग्लूकोज़ बिस्कुट के दो पैकेट पड़े हैं। उसने एक पैकेट निकला और बिस्कुट खाने लगा। कुछ बिस्कुट चाय के साथ खाने के लिए छोड़ कर उसने बोतल से दो चार घूंट पानी पिया। अपने बैग की तकिया बना कर वह बेंच पर लेट गया। कुछ ही देर में उसे झपकी लग गई।
मुकुंद सपने में फिर वही झलकियां देखने लगा। एक पहाड़ी के ऊपर पुराना किला। यह सपना उसे पिछले कई दिनों से आ रहा था। सपने में वह स्वयं को एक पुराने किले में देखता था। उसे लगता था कि जैसे किला उसे अपने पास बुला रहा हो।
जागते हुए भी वह किले के बारे में ही सोंचता रहता था। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों है? उसने इंटरनेट पर हिंदुस्तान के पुराने किलों के बारे में ढूंढ़ना शुरू किया। ऐसी ही एक तलाश में एक दिन एक लेख में उसने वसीमगढ़ व उसके किले के बारे में पढ़ा। लेख में जो तस्वीरें थीं वह हूबहू उसी किले से मिलती थीं जो वह सपने में देखता था। इसीलिए वह वसीमगढ़ जा रहा था।
"उठिए श्रीमान चाय पी लीजिए।" आवाज़ सुनकर वह जाग गया।
उसने आँख खोली तो स्टेशन मास्टर हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ा था। वह उठ कर बैठ गया। चाय का प्याला पकड़ कर उसने स्टेशन मास्टर को बैठने का इशारा किया। बिस्कुट का पैकेट उसकी तरफ बढ़ा कर मुकुंद ने कहा "लीजिए बिस्कुट खाइए।"
एक बिस्कुट लेकर स्टेशन मास्टर उसे चाय में डुबो कर खाने लगा।
"श्रीमान हमारा परिचय तो हुआ नही। मेरा नाम श्याम सुंदर दास है। बिहार का रहने वाला हूँ। परिवार वहीं रहता है। मैं तो बस रिटायरमेंट के बचे हुए महीने काट रहा हूँ।"
"मैं मुकुंद हूँ। टीवी के सीरियल के लिए कहानी लिखता हूँ।"
"मेरी पत्नी टीवी सीरियल की दीवानी है। दिन भर टीवी ही देखती है।" स्टेशन मास्टर ने हंसते हुए कहा। "लेकिन आप इस बीहड़ में क्या करने आए हैं।"
"सास बहू की कहानियां लिखते लिखते ऊब गया था। कुछ नया लिखना चाहता था। इसलिए कुछ अद्भुत और रोमांचक कहानियों की तलाश में निकला हूँ।"
"तो वसीमगढ़ के किले की कहानियां आपको यहाँ लाई हैं।"
"जी हाँ। उस किले के बारे में मैंने बहुत सी बातें सुनी है। उन्हें ही अनुभव करने आया हूँ।"
"मेरी तो यही सलाह है कि संभल कर रहिएगा। वैसे कल वहाँ देवी पूजा का सालाना उत्सव होने वाला है। अतः धूम रहेगी।"
मुकुंद ने सपने वाली बात बताना उचित नहीं समझा। उसकी बात सुनकर वह कुछ नहीं बोला। सिर्फ हल्के से मुस्कुरा दिया।
****
मुकुंद ग्राम प्रधान के घर के सामने खड़ा था। दरवाज़ा खुलने पर घर के नौकर ने बताया कि प्रधान जी अभी घर पर नही हैं। लौटने में कुछ समय लगेगा। मुकुंद घर के सामने बने नीम के चबूतरे पर बैठ कर उनके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। सुबह स्टेशन मास्टर से जब उसने वसीमगढ़ में रहने के लिए कोई स्थान बताने की बात कही थी तो उसने बताया था कि वसीमगढ़ गांव में उसके रहने की व्यवस्था वहाँ के ग्राम प्रधान भवानी प्रसाद सिंह ही कर सकते है। अतः वह यहाँ उनसे मिलने आया था।
डेढ़ घंटे बस का सफर कर वह वसीमगढ़ पहुँचा। रात से उसने सही तरह से खाया नहीं था। ज़ोरों की भूख लगी थी। बस से उतरते ही सामने बोर्ड लगा दिखाई दिया 'धनीराम का ढाबा'। ढाबे में भर पेट भोजन करने के बाद ही वह यहाँ आया था।
अगले दिन होने वाले उत्सव के कारण गांव बहुत चहल पहल थी। लोग अपने अपने तरीके से उत्सव की तैयारी में व्यस्त थे। गांव के बीच में बने देवी मंदिर में एक विशेष पूजा होनी थी। हलांकी एक दो घरों को छोड़ कर शेष मकान कच्चे थे किंतु दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी। मुकुंद सोच रहा था कि वह इस गांव में एक हफ्ता आराम से रह पाएगा। लेकिन सवाल था कि रहेगा कहाँ। यदि प्रधान ने कोई मदद नही की तो क्या होगा। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि ग्राम प्रधान उसे रहने की कोई जगह दिला दें।
करीब एक घंटे बाद प्रधान के घर के सामने एक जीप आकर रुकी। पीछे दो बंदूकधारी बैठे थे। जीप से एक रौबीला व्यक्ति उतरा। लंबा कद, भरा हुआ शरीर। चेहरे पर घनी मूंछें उसके रौब को और बढ़ा रही थीं। मुकुंद समझ गया कि यही भवानी प्रसाद हैं। उनके पास पहुँच कर उसने नमस्कार किया।
"कहिए कौन हैं आप। क्या मदद करूँ आपकी।" प्रधान ने भारी आवाज़ में पूंछा।
मुकुंद ने सारी बात बता दी।
"अगर यहाँ ठहरने की कोई जगह मिल जाती तो अच्छा होता। मैं तो यहाँ किसी को भी नही जानता।"
"इस मामले में मैं भी आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"
"आप तो ग्राम प्रधान हैं। मदद कर दीजिए अन्यथा मैं कहाँ जाऊँगा।"
"देखते हैं क्या हो सकता है। आप यहीं इंतज़ार करें।" कह कर प्रधान अंदर चले गए।
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मुकुंद फिर से उसी चबूतरे पर जाकर बैठ गया। कुछ ही देर में ग्राम प्रधान का नौकर आया और उसे अपने साथ चलने का इशारा किया। वह उसे दूसरे रास्ते से घर के पिछले हिस्से में ले गया। वहाँ मवेशियों का बाड़ा था। कुछ ही आगे चल कर दो कमरे बने थे। एक कमरे का दरवाज़ा खोल कर नौकर उसे भीतर ले गया। कमरा छोटा था। बहुत दिनों से बंद रहने के कारण एक अजीब सी गंध भरी थी। कमरे में जाले लगे थे। कमरे में एकमात्र खिड़की थी जो बंद थी। खिड़की के पास एक चारपाई पड़ी थी।
नौकर ने बाहर कुएं की तरफ इशारा कर कहा "वहाँ बाल्टी और रस्सी है। वहीं से पानी भर लीजिएगा।" यह कह कर वह जाने लगा।
"भाई यहाँ बहुत गंदगी है।" मुकुंद ने टोंका।
नौकर ने उसे ऐसे देखा जैसे कह रहा हो कि सर छुपाने की जगह मिल गई वह काफी नही है। मुकुंद उसके भावों को समझ गया।
"मेरा मतलब था कि एक झाड़ू मिल जाती तो मैं इस जगह को रहने लायक बना लेता।"
नौकर झाड़ू दे गया। आधे घंटे की मेहनत कर मुकुंद ने कमरा साफ कर दिया। खिड़की खुलने से ताज़ी हवा के कारण महक भी कुछ कम हो गई। कुएं पर हाथ पैर धोने के बाद वह कुछ तरोताज़ा महसूस कर रहा था। वह चारपाई पर लेट गया। शाम ढल रही थी। कुछ ही देर में अंधेरा होने वाला था।
लेटे हुए वह सोच रहा था। कितना फर्क है उसके शहर और यहाँ की ज़िंदगी में। वहाँ तो आधी रात को भी कितनी चहल पहल रहती है। किंतु यहाँ तो दिन में जितनी सजीवता थी सूरज ढलते ही सब शांत हो गया। अभी तो शाम भी नही ढली। कैसे वह वक्त काटे। उठकर उसने बल्ब जला दिया। कमरे में मद्धम पीली रौशनी फैल गई। उसने बैग से जासूसी उपन्यास निकाला और समय काटने के लिए पढ़ने लगा। पढ़ते पढ़ते ना जाने कब उसे नींद आ गई।
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गर्मी की वजह से उसकी आँख खुल गई। जब वह उठा तो पसीने से तर था। घड़ी पर नज़र डाली तो रात के ग्यारह बजे थे। वह उठ कर कमरे में टहलने लगा। उसे थोड़ी थोड़ी भूख लगने लगी थी। अब तो ढाबा भी बंद हो गया होगा। उसके बैग में ग्लूकोज़ बिस्कुट का एक और पैकेट पड़ा था। वह बिस्कुट निकाल कर खाने लगा। खाने के बाद वह पानी पीने के लिए कुएं पर गया। पानी पीकर जब लौटने लगा तो उसे कुछ आवाज़ें सुनाई पड़ी। 'इतनी रात यह कैसी हलचल है।' यह जानने के लिए कौतुहलवश वह मकान के सामने वाले हिस्से में आ गया। आड़ में खड़े होकर उसने देखा कि भवानी प्रसाद जीप में बैठ कर कहीं जा रहे थे।
तभी पीछे से आवाज़ आई "आप इतनी रात यहाँ क्या कर रहे हैं।'"
मुकुंद ने पीछे मुड़ कर देखा। वही नौकर था।
"नींद नही आ रही थी। इसलिए थोड़ा टहलने निकला था। वैसे प्रधान जी इस समय कहाँ गए हैं।"
नौकर ने उसे घूर कर देखा।
"आपके लिए इतनी रात गए यूं टहलना ठीक नही है। जाकर सो जाइए।"
मुकुंद वापस अपने कमरे में आ गया। आखिर इतनी रात प्रधान जी जीप में बैठ कर कहाँ गए होंगे। वह नौकर भी उसे कैसे घूर रहा था। वह सोचने लगा कि यह जगह ही कुछ विचित्र सी है। दोपहर मे भी जब उसने गांव के एक व्यक्ति से पूंछा था कि वसीमगढ़ का किला किस तरफ है तो पहले तो उसने अजीब नज़रों से उसे देखा फिर बिना कुछ बोले पूरब की तरफ हाथ उठा कर इशारा कर दिया। उस वक्त तो उसे ठहरने की जगह तलाशनी थी। इसलिए गया नही। पर कल सुबह वह अवश्य ही जाएगा। वहाँ जाकर उस सपने का रहस्य जानने का प्रयास करेगा। यही सब सोंचते हुए वह सो गया।
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अगले दिन सुबह सुबह ही वह वसीमगढ़ का किला देखने के लिए निकल गया। गांव के खुले वातावरण में सुबह एक नया ही रंग लिए हुए थी। इससे पहले उसने ऐसा सुंदर नज़ारा कभी नही देखा था। पूर्व में उगता सूरज किसी लाल गोले की तरह दिखाई दे रहा था। चिड़ियों की चहचहाहट और ठंडी हवा ने उसका मन मोह लिया।
गांव के बाहर निकलते ही उसे एक पहाड़ी दिखाई पड़ी। एक कच्चा रस्ता ऊपर की तरफ जा रहा था। वह उस पर चलने लगा। कुछ ही दूर चलने पर उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे आ रहा है। उसने घूम कर देखा। पचास पचपन साल का एक आदमी भी पहाड़ी पर चढ़ रहा था। मुकुंद को देख कर वह मुस्कुराया।
"आप बाहर से आए हैं शायद। पहले कभी आपको देखा नही।" तेज़ कदमों से मुकुंद की तरफ बढ़ते हुए उसने पूंछा।
मुकुंद ने अनुभव किया कि इस उम्र में भी वह व्यक्ति बहुत फुर्तीला था।
"जी मैं कल ही मुंबई से आया हूँ। मेरा नाम मुकुंद है। मैं एक लेखक हूँ।"
उस व्यक्ति ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए परिचय दिया "मैं डॉक्टर दर्शन लाल हूँ। गांव में एक छोटा सा दवाखाना चलाता हूँ।"
मुकुंद को याद आया कल गांव में आते समय उसने एक दवाखाना देखा था।
"तो आप किले की कहानियों के बारे में लिखना चाहते हैं।" डॉ. दर्शन ने आगे बढ़ते हुए कहा।
"जी पर आपको कैसे मालूम।"
"कोई जादू नहीं है मेरे पास। आपने बताया कि आप लेखक हैं।"
मुकुंद को अपना सवाल मूर्खतापूर्ण लगा। डॉक्टर उसकी स्थिति को भांप गए। बात बढ़ाते हुए बोले।
"वैसे एक डॉक्टर होने के नाते मैं भूत प्रेत पर यकीन नही करता। लेकिन गांव वालों का पूरा भरोसा है कि किले में कोई भूत प्रेत है।इसीलिए कोई किले के पास नही जाता। खासकर रात में।"
डॉ. दर्शन उसे किले के बारे में प्रचलित किस्से सुनाने लगे। कुछ किस्से मुकुंद को बहुत दिलचस्प लगे। किस्से सुनते सुनाते दोनों किले पर पहुँच गए। मुकुंद ने काफी दूर तक फैले किले को देखा। एक ऐतिहासिक धरोहर था। जो पूर्णतया उपेक्षित था। डॉ. दर्शन और वह किले में घूमने लगे। डॉ. दर्शन उसे किले के इतिहास के बारे में भी बता रहे थे। एक स्थान पर किले का कुछ हिस्सा टूट कर गिर गया था। जिसके कारण किले के दूसरे हिस्से में जाने का मार्ग बंद हो गया था।
"दूसरी तरफ जाने का कोई और रास्ता नही है।" मुकुंद ने जानना चाहा।
"नही है। वैसे भी यहाँ कोई आता जाता नही है।"
वैसे तो किला साधारण ही था। देख रेख के आभाव में खस्ताहाल था। किंतु फिर भी मुकुंद को लग रहा था कि जैसे इस जगह में कोई राज़ छिपा हो। उसे लग रहा था कि उल सपने के ज़रिए प्रकृति उससे किले के रहस्य को उजागर करना चाहती है। वह पहले भी ऐसी कई जगहों पर घूम चुका था। उसकी छटी इंद्री उसे प्रेरित कर रही थी। दूसरी तरफ डॉ. दर्शन जिस तरह से किले को एक साधारण खंडहर बता कर उसका ध्यान वहाँ से हटाना चाहते थे उससे उसकी उत्सुकता और बढ़ गई थी। मुकुंद ने तय किया कि वह किसी और समय यहाँ अकेला आएगा। कुछ देर वहाँ ठहरने के बाद दोनों वापस आ गए।
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मुकुंद किले की तरफ बढ़ रहा था। सूरज पूरी प्रचंडता के साथ सिर पर चमक रहा था। सुबह यहाँ जो शांति थी वह मन को सुकून दे रही थी। लेकिन इस समय एक भयावह नीरवता थी। पर इन सब की परवाह किए बगैर मुकुंद पहाड़ी पर चढ़ता जा रहा था। सुबह यहाँ से वापस जाने के बाद से ही वह दोबारा यहाँ आने के लिए बेचैन था।
किले में पहुँच कर उसने फिर से पूरे किले का निरीक्षण किया। सब कुछ सामान्य ही था। फिर भी उसका मन बार बार यही कह रहा था कि यहाँ अवश्य कुछ ऐसा है जो सही नही है। बार बार उसे लगता था कि उसका सपना उसे किसी मकसद से यहाँ लाया था। लेकिन अब तक उसे किले में कुछ भी ऐसा नहीं मिला था जिससे वह कुछ साबित कर सके। देखने से वह किला बहुत साधारण लग रहा था। लेकिन उसे लग रहा था कि जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे भीतर से प्रेरित कर रही है। बहुत देर तक वह कोशिश करता रहा लेकिन उसके हाथ कुछ नही लगा।
थक कर वह एक पत्थर पर बैठ गया। बोतल से थोड़ा पानी पिया और सुस्ताने लगा। उसे महसूस हुआ कि कोई उसे दूर से घूर रहा है। पहले भी उसे ऐसा लगा था जैसे कोई उसकी गतिविधियों पर नज़र रखे है। लेकिन तब अपनी धुन में मस्त उसने कोई ध्यान नही दिया था। उसने सामने की तरफ नज़र दौड़ाई। वहाँ कोई नही था। घूम कर उसने पीछे की तरफ भी देखा। वहाँ भी कोई नही था। जैसे ही वह पलटा अचानक अपने सामने किसी को देख कर सकपका गया। वह एक पंद्रह सोलह वर्ष की लड़की थी जो उसे एकटक देख रही थी।
"ककक कौन हो तुम।" मुकुंद ने घबरा कर पूंछा।
"आप यहाँ क्या करने आए हैं?" लड़की ने उल्टा प्रश्न किया।
"मैं किला देखने के लिए आया हूँ।" अपने पर काबू करते हुए कुछ संयत स्वर में मुकुंद ने जवाब दिया।
"सुबह आए तो थे। इस पुराने किले में ऐसा क्या खास दिख गया कि कुछ ही घंटों में दोबारा चले आए।"
"तो तुम सुबह से मुझ पर नज़र रखे हो। कौन हो तुम। मेरे पीछे क्यों लगी हो।"
एक बार फिर उसकी बात का जवाब देने की बजाय लड़की ने कहा "इस किले का राज़ जानना चाहते हैं?"
मुकुंद चौंक गया। आखिर इसे उसके मन की बात कैसे पता चली।
"अगर जानना चाहते हैं तो मेरे पीछे आइए।" मुकुंद के आश्चर्य की परवाह किए बिना वह आगे बढ़ गई।
मुकुंद भौचक सा उसके पीछे पीछे चलने लगा। वह लड़की यंत्रवत चली जा रही थी। मुकुंद कुछ समझ नही पा रहा था। लेकिन बिना कुछ बोले वह उसके पीछे चला जा रहा था। वह लड़की उसे किले के भीतरी हिस्से में ले गई। वहाँ एक कोठरी के अंदर पहुँच कर उसने कोने में पड़े एक पत्थर की तरफ इशारा कर कहा "इसे खिसकाओ।"
मुकुंद कुछ समझ नहीं पा रहा था। उस लड़की का व्यवहार बहुत ही विचित्र लग रहा था। उसकी आवाज़ ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे कहीं दूर से आ रही हो।
"क्या हुआ पत्थर क्यों नहीं खिसकाते?" उस लड़की ने डांट लगाई।
मुकुंद ने फौरन आगे बढ़ कर पत्थर खिसकाने की कोशिश की। वह बहुत भारी था। आसानी से हिल नहीं रहा था।
"अपनी ताकत को इकठ्ठा कर ज़ोर लगाइए।" उस लड़की ने सलाह दी।
मुकुंद कुछ देर के लिए उसी पत्थर पर बैठ गया। मन ही मन स्वयं को तैयार करने लगा। कुछ समय के बाद वह उठा और पूरी ताकत लगा कर उसने पत्थर को खिसका दिया। पत्थर के हटते ही एक सुरंग सी दिखाई दी।
"इस सुरंग के रास्ते आगे बढ़ें।"
मुकुंद उसकी बात मानकर सुरंग में घुस गया। अंदर बहुत अंधेरा था। आगे बढ़ना मुश्किल लग रहा था।
"सुरंग एकदम सीधी है। संभल कर अंदाज़ से आगे बढ़ते रहिए।"
मुकुंद धीरे धीरे कदम बढ़ता दोनों हाथों से सुरंग की दीवार को टटोलता आगे बढ़ने लगा। करीब दस मिनट चलने के बाद उसे सुरंग का दूसरा सिरा दिखाई दिया। सुरंग में चलते हुए वह एक बड़े से हॉल में आ गया था।
****
कल जब ग्राम प्रधान के पास रहने के लिए जगह मांगने पहुँचा था तब प्रधान ने रहने के लिए जगह तो दे दी किंतु अपने विश्वासपात्र नौकर शंभू को उस पर नज़र रखने का आदेश दिया। गांव के सालाना उत्सव में खास मेहमान बन कर राज्य के मुख्यमंत्री आने वाले थे। भवानी प्रसाद उसी में व्यस्त रहने वाले थे। तब से शंभू उस पर नज़र रखे था। रात को जब मुकुंद ने प्रधान के बाहर जाने के विषय में पूंछाताछ की तो वह और भी सजग हो गया। सुबह जब मुकुंद किले की तरफ जा रहा था तो शंभू भी छुप छुप कर उसका पीछा कर रहा था। लेकिन जब उसने डॉ. दर्शन लाल को उससे बात करते देखा तो चुपचाप लौट आया।
किले से लौट कर मुकुंद जब ढाबे पर नाश्ते के लिए गया तब फिर शंभू उसके पीछे लग गया। मुकुंद को आभास हो गया था कि शंभू उस पर नज़र रखे हुए है। किंतु वह ऐसे व्यवहार करता रहा जैसे कुछ भी नहीं जानता हो। वह दोपहर को फिर से किले में जाना चाहता था। अतः उसने शंभू से पीछा छुड़ाने की तरकीब लगाई।
वह शंभू के पास जाकर बोला।
"मेरे सर और बदन में बहुत दर्द हो रहा है। यदि कोई दवा मिल जाती तो खाकर मैं आराम करता।"
शंभू ने रुखाई से मना कर दिया। वह बोला कि दवा लेनी हो तो डॉक्टर के दवाखाने चले जाओ। मुकुंद ने बहाना किया कि अब उसके भीतर चलने की ताकत नहीं है। वह ऐसे ही जाकर आराम करेगा। कमरे में पहुँच कर उसने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। वह चारपाई पर चादर ओढ़ कर लेट गया। उसने चालाकी से चारपाई इस तरह रखी थी कि खिड़की से सिर्फ उसके पैर दिख सकें।
शंभू थोड़ी थोड़ी देर में आकर भीतर झांक जाता। मुकुंद उस समय की प्रतीक्षा कर रहा था जब शंभू को उसके बीमार होने का पूरा यकीन हो जाए। कई बार चक्कर लगाने के बाद शंभू को विश्वास हो गया कि मुकुंद बीमार है। वह कहीं भी जाने की स्थिति में नहीं है। अतः वह लापरवाह हो गया।
मुकुंद बड़ी सावधानी से स्थिति पर नज़र रखे था। जब बहुत समय बाद भी शंभू उसे देखने नहीं आया तो वह चुपके से उठा और चादर के नीचे कपड़े कुछ इस तरह से लगाए कि लगे वह अभी भी सो रहा है। उसके बाद वह दबे कदमों से बाहर झांक कर देखा। शंभू बेफिक्री से कुएं के पास बैठा ताश खेल रहा था। वह धीरे से बाहर आया। दरवाज़े को बाहर से बंद कर सावधानी से नज़रें बचाता हुआ किले की तरफ निकल गया।
कुछ देर बाद शंभू फिर से खिड़की से झांक कर मुकुंद को सोते देख कर अपने साथी के साथ पत्ते खेलने चला गया। बीच बीच में एक दो बार और वह झांक कर देख गया। करीब एक घंटा बीत गया। शंभू का साथी चला गया था। वह पुनः मुकुंद को देखने आया। इस बार भी उसे उसी स्थिति में सोता पाया। लेकिन इस बार उसका माथा ठनका। उसने जैसे ही दरवाज़े को पीट कर मुकुंद को जगाना चाहा भिड़ा हुआ दरवाज़ा खुल गया। दौड़ कर उसमें चादर हटाई तो मुकुंद को गायब देखकर घबरा गया।
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हॉल में प्रकाश की व्यवस्था थी। वहाँ ठंडक थी। चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो मुकुंद की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। वहाँ एक ऑपरेशन थिएटर था। वहाँ उसने यंत्रों के अंदर विशेष द्रव्यों में रखे मानव अंग देखे। उसका सर चकराने लगा। बड़ी मुश्किल से उसने खुद को संभाला।
"यहाँ लोगों के शरीर से ज़रूरी अंग निकाल कर उन्हें मार दिया जाता है।" लड़की ने मुकुंद को बताया। उसके बाद उसे अपने पीछे आने के लिए कहा।
मुकुंद फिर उसके पीछे चलने लगा। उस हॉल के बाहर निकल कर दोनों एक गलियारे में आए। गलियारा पार करने के बाद दोनों मैदान में पहुँच गए।
"इसी जगह उन लोगों की लाशों को गाड़ दिया जाता है।"
मुकुंद ने ध्यान से देखा। यह किले का पिछला हिस्सा था। जानबूझ कर किले के एक हिस्से को गिरा कर यहाँ पहुँचने का रास्ता बंद कर दिया गया था।
"ये लोग देश के अलग अलग हिस्सों से लोगों को अगवा कर यहाँ लाते हैं। फिर उनके अंग निकाल कर उन्हें बाहर बेंच देते हैं।"
मुकुंद के दिमाग में फिर उस लड़की को लेकर सवाल उभरे।
"तुम कौन हो? इतना सब कुछ कैसे जानती हो? अब तक तुमने किसी को कुछ बताया क्यों नहीं?" मुकुंद ने एक साथ ही सारे सवाल पूँछ लिए।
इस बार वह लड़की नाराज़ नहीं हुई। उसने मुकुंद की तरफ देखा। मुकुंद ने पहली बार उसकी आँखों में देखा था। उनमें अजीब सा रहस्य था।
"मुझे इनके बारे में सब कुछ मालूम है। क्योंकी मैं भी इनका शिकार बनी हूँ।"
यह सुन कर मुकुंद सकते में आ गया। हकलाते हुए बोला।
"इ..इ..इसका मतलब तुम भूत हो.....!"
"सही कहा। मैं भूत हूँ। कई दिनों से यहाँ भटक रही हूँ। लेकिन मैं किसी को दिखाई नहीं पड़ती हूँ। सिर्फ आपने मुझे देखा है।"
"ऐ...ऐसा....क्यों?"
"क्योंकी आपको ही वह सपना आता था।"
"मुझे ही क्यों?"
"गौर से मेरी सूरत देखिए। शायद कुछ याद आ जाए।"
मुकुंद कुछ पलों तक उसके चेहरे को ध्यान से देखता रहा। स्मृतिपटल पर एक चेहरा उभर कर सामने आया। उसके मुंह से निकल पड़ा "रेश्मा"।
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टीवी जगत में अभी मुकुंद का काम शुरू ही हुआ था। उसके पहले सीरियल की कहानी लोगों को पसंद आ रही थी। वह काम से कुछ फुर्सत निकाल कर एक हैंडीक्राफ्ट प्रदर्शनी देखने गया था। राजस्थान की एक स्टॉल में कठपुतलिययों के पीछे से झांकते एक चेहरे ने उसे अपनी तरफ खींच लिया। चेहरा जाना पहचाना था। उस लड़की ने भी उसे देख लिया। वह कस्तूरी थी। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़े थे। उन दिनों मुकुंद ने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक ड्रामा ग्रुप बनाया था। अपने लिखे एक नाटक के लिए उसे हिरोइन की तलाश थी। कॉलेज की कैंटीन में उसकी नज़र बीकॉम अंतिम वर्ष में पढ़ने वाली कस्तूरी पर पड़ी। मुकुंद ने उससे अपने नाटक की हिरोइन बनने की पेशकश की। पहले तो कस्तूरी ने यह कह कर मना कर दिया कि उसे अभिनय का शौक नहीं है। लेकिन मुकुंद के बार बार मनाने पर उसने हिरोइन बनने के लिए हाँ कर दी।
नाटक के रिहर्सल के दौरान एक दिन मुकुंद और कस्तूरी अकेले थे। कुछ नाज़ुक पलों में दोनों एक दूसरे के इतने नज़दीक आ गए कि खुद पर काबू नहीं कर पाए। उसके बाद उन लोगों में एक असहजता आ गई। लेकिन फिर भी दोनों ने नाटक का मंचन किया। उसके बाद फाइनल इम्तेहान हो गए। दोनों अपने अपने रास्ते पर निकल गए। आज करीब दस साल के बाद दोनों मिले थे।
कुछ देर दोनों इधर उधर की बात करते रहे। बातों के दौरान कस्तूरी ने उसे अपने घर बुलाया। मुकुंद ने टालने का प्रयास किया तो वह बोली कि बहुत ज़रूरी बात है जो वह यहाँ नहीं कर सकती है।
अगले दिन शाम को मुकुंद उस गेस्ट हॉउस में पहुँचा जहाँ कस्तूरी ठहरी थी। वहाँ उसकी मुलाकात एक बच्ची से हुई। मुकुंद ने बच्ची को प्यार से गले लगाते हुए उसका नाम पूँछा। बच्ची का नाम रेश्मा था।
"तो तुमने शादी कर ली।" मुकुंद ने कस्तूरी से पूँछा।
"नहीं।" कस्तूरी ने धीरे से जवाब दिया और उसकी तरफ देखने लगी।
मुकुंद को दस साल पहले के वो लम्हे याद आ गए। उसने बच्ची को गौर से देखा। उसकी उम्र भी लगभग उतनी ही थी। बच्ची उसके चेहरे को ऐसे देख रही थी जैसे उसमें किसी की छवि तलाश रही हो।
कस्तूरी ने बच्ची को अंदर जाने को कहा। बच्ची के जाने के बाद वह मुकुंद से बोली।
"रेश्मा हमारे उन कमज़ोर पलों का ही परिणाम है। मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हें कभी इसके बारे में बताऊं। इसीलिए तुम्हारे बारे में सब जानते हुए भी कभी तुमसे नहीं मिली। लेकिन मुंबई आने का मेरा मकसद केवल हैंडीक्राफ्ट की स्टॉल लगाना ही नहीं बल्कि तुमसे मिलना भी था। इत्तेफ़ाक देखो कल तुम खुद ही आ गए।"
कस्तूरी कुछ पलों के लिए शांत हो गई। जैसे बात आगे बढ़ाने के लिए शब्द तलाश रही हो।
"मुकुंद मैं इन दिनों आर्थिक परेशानी से गुज़र रही हूँ। अपने हैंडीक्राफ्ट के बिज़नेस के लिए मैंने पैसा उधार लिया था। लेकिन बिज़नेस सही चल नहीं पाया। कर्ज़ के तले दबे हुए अब 'ज़िंदगी चलाना मुश्किल हो रहा है। इसलिए मैं चाहती थी कि रेश्मा की परवरिश में तुम भी मेरी मदद करो।"
उसकी बात सुनकर मुकुंद चौंक गया।
"मेरा कैरियर तो अभी सही प्रकार से शुरू भी नहीं हुआ है। अपने दो दोस्तों के साथ फ्लैट साझा करता हूँ।"
"मैं भी तुम्हें रेश्मा को अपने पास रखने को नहीं कह रही हूँ। तुम बस पैसों से मदद कर दो।"
"मेरे लिए पैसों की मदद देना भी कठिन होगा।"
मुकुंद के इस दो टूक जवाब से कस्तूरी को धक्का लगा। उसे आहत देख कर मुकुंद ने कहा।
"देखो कस्तूरी उस दिन जो हुआ वह दोनों की ही कमज़ोरी थी। लेकिन तुमको जब बच्चे का पता चला था तो तुम समझदारी से काम ले सकती थीं।"
उसकी तरफ देख कर वह बोला।
"फिर मैं कैसे मान लूँ कि रेश्मा......"
उसी समय मुकुंद की निगाह पर्दे के पीछे से झांकती रेश्मा के चेहरे पर पड़ी। उसकी आँखों में आंसू देख कर वह चुप हो गया।
उसकी बात कस्तूरी को चुभ गई।
"मुझे तुमसे कोई मदद नहीं चाहिए। तुम चले जाओ यहाँ से।"
मुकुंद चुपचाप उठ कर चला गया।
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शंभू को जब मुकुंद के कमरे में ना होने का पता चला तो वह फौरन ही उसे ढूंढ़ने के लिए निकल गया। उसे अंदाज़ था कि वह किले की तरफ गया होगा। वह तेजी से किले की तरफ बढ़ गया। किले में पहुँच कर उसने चारों तरफ मुकुंद को ढूंढ़ा। लेकिन उसे कहीं भी मुकुंद दिखाई नहीं पड़ा। वह सोंचने लगा कि यदि मुकुंद यहाँ नहीं है तो आखिर कहाँ गया होगा। इस गांव में और कोई ऐसी जगह तो है नहीं जिसमें उसकी दिलचस्पी हो। वह यदि होगा तो यहीं होगा। लेकिन शंभू समझ नहीं पा रहा था कि उसे ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया।
वह उठ कर खड़ा हो गया। एक बार फिर इधर उधर देखने लगा। तभी उसके दिमाग में कौंधा कहीं मुकुंद को सुरंग वाला रास्ता तो नहीं मिल गया। यह विचार आते ही वह उस तरफ दौड़ा। वहाँ पहुँचते ही उसका शक सही साबित हुआ। सुरंग के मुंह पर लगा पत्थर अपनी जगह से खिसका हुआ था। वह सुरंग के अंदर गया। हॉल में उसे ना पाकर वह आगे बढ़ा तो उसने मुकुंद को मैदान में खड़े हुए देखा। बाहर आकर उसने फौरन फोन कर ग्रामप्रधान को सूचना दी।
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डॉक्टर दर्शन लाल का असली नाम सुभाष अस्थाना था। शहर में उसका प्राईवेट अस्पताल था। लेकिन उस अस्पताल में गरीबों के मुफ्त इलाज की आड़ में वह किडनी रैकेट चलाता था। सड़क पर रहने वाले गरीब मजदूर लोगों को ऑपरेशन का झांसा देकर उनकी किडनी निकाल कर बेंच देता था। लेकिन एक स्थानीय अखबार के पत्रकार ने उसकी असवियत बाहर लाने की कोशिश की। उसके विरुद्ध कई साक्ष्य भी प्रस्तुत किए। लेकिन डॉ. अस्थाना ने अपनी पहुँच का प्रयोग कर मामले को दबा दिया। किंतु पत्रकार ने हिम्मत नहीं हारी। डॉ. अस्थाना के खिलाफ और भी पुख्ता सबूत एकत्र कर पुनः मामले को लोगों के सामने ले आया। इस बार पुलिस हरकत में आ गई। डॉ. अस्थाना के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया। बचना मुश्किल दखकर डॉ. अस्थाना भाग कर वसीमगढ़ आ गया। यहाँ नाम बदल कर रहने लगा। दिखावे के लिए दवाखाना खोल लिया।
वसीमगढ़ सीमा से लगा हुआ क्षेत्र था। यहाँ के ग्राम प्रधान भवानी प्रसाद सिंह चोरी छिपे हथियारों तस्करी का काम करते थे। डॉ. दर्शन लाल यह जानता था। उसने भवानी प्रसाद को मानव अंगों की तस्करी का सुझाव दिया। पैसे के लालची भवानी प्रसाद ने उसकी बात मान ली।
वसीमगढ़ का किला इस काम के लिए सबसे अच्छी जगह थी। वह पहाड़ी के ऊपर एकांत में था। लोगों को भ्रम था कि वहाँ किसी भूत का साया है। अतः कोई भी वहाँ जाने से डरता था। गांव वालों के इस शक को डॉक्टर और ग्राम प्रधान ने और हवा दी। इसके कारण लोगों ने उसके आसपास जाना भी छोड़ दिया।
लोगों का अपहरण कर वहाँ लाया जाता था। उनके अंग निकाल कर उन्हें मार कर वहीं दफन कर देते थे। रात में विशेष वाहनों से निकाले गए अंग बाहर भेज दिए जाते थे।
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"सही पहचाना आपने।" रेश्मा मुकुंद की तरफ देख कर बोली।
"तुम इन लोगों के चंगुल में कैसे फंस गईं?"
"लंबी कहानी है। आपने उस दिन मुझे अपनी बेटी मानने से भी इंकार कर दिया। मम्मी किसी भी तरह से अपनी परेशानियों से उबर नहीं पा रही थीं। मम्मी की शॉप को जब्त कर लिया गया। मम्मी यह सब सह नहीं पाईं। उन्होंने मेरी भी परवाह नहीं की। एक दिन मैंने उन्हें छत से झूलते पाया। मैं अनाथ हो गई थी।
मम्मी के रिश्ते के एक भाई थे। वह कभी कभी हमारे घर आते थे। मैं उनके घर चली गई। लेकिन मेरी हैसियत वहाँ एक नौकरानी की थी। मेरी मामी मुझे बहुत तंग करती थी। मुझसे सारा काम करवाती थी। खाने को भी ना के बराबर देती थी। इस तरह वहाँ मैंने दो साल काटे।
मैं बड़ी हो रही थी। मैंने महसूस किया कि मामा मुझे अब अलग ही नज़र से देखने लगे हैं। अक्सर मेरा हालचाल लेने के बहाने वह मुझे पास बिठा कर इधर उधर छूने की कोशिश करते थे। मुझे बहुत खराब लगता था।
एक दिन मामी घर पर नहीं थी। मामा अपने एक दोस्त को लेकर आए। उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया। जब मैं वहाँ पहुँची तब उनके दोस्त ने मुझे दबोच लिया। मैं चिल्लाती रही। मामा चुपचाप सब देखते रहे।"
रेश्मा की आपबीती सुनकर मुकुंद की आँखों से झर झर आंसू गिर रहे थे। वह इस सब के लिए खुद को दोषी महसूस कर रहा था।
"उस रात मैं घर से भाग निकली। भूखी प्यासी भटकने लगी। फिर कुछ दिन भीख मांग कर गुज़ारे। फिर सोंचा ऐसा कब तक चलेगा। मैंने सोंचा कि मुंबई जाकर आपकी तलाश करती हूँ। मैं एक ट्रेन में बैठ गई। टिकट नहीं था। सीट के नीचे छिपी थी।
डब्बे में कुछ| लोग बैठे थे। एक की निगाह मुझ पर पड़ गई। वह लोग मुझे वसीमगढ़ ले आए। कुछ दिनों तक यहाँ के ग्राम प्रधान के घर नौकरानी बन कर रही। एक दिन मैंने प्रधान और डॉक्टर की बातचीत सुन ली। वो मुझे पकड़ कर यहाँ ले आए और मुझे मार दिया। तब से मैं यहाँ भटकती हूँ। इनके कारनामे देखती हूँ। लेकिन कर कुछ नहीं सकती।"
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आज गांव के सालाना उत्सव में राज्य के मुख्यमंत्री मुख्य अतिथि के तौर पर आने वाले थे। ग्राम प्रधान होने के नाते भवानी प्रसाद उनके स्वागत की तैयारी में जुटे थे। वह व्यवस्था का निरीक्षण कर रहे थे कि तभी उनका फोन बज उठा। शंभू ने उन्हें सारी बात की जानकारी दी। प्रधान ने उन्हें वहीं रुक कर नज़र रखने को कहा। वह सब छोड़ कर फौरन डॉ. दर्शन लाल के पास गए। डॉक्टर ने तसल्ली दी कि वह यहाँ का इंतज़ाम देखें मैं जाकर सब संभालता हूँ।
डॉक्टर तुरंत ही किले की तरफ चल दिया। जब वह वहाँ पहुँचा तब शंभू बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
"कहाँ है वह?" डॉक्टर ने पूँछा।
"सुरंग के अंदर है। सब कुछ देख लिया। पता नहीं इतनी देर से अंदर क्या कर रहा है?"
डॉक्टर शंभू को लेकर अंदर चला गया।
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मुकुंद को अपने किए पर पछतावा हो रहा था। वह माफी मांगते हुए बोला।
"मुझे माफ कर दो मेरी बेटी। मैं उस समय स्वार्थी हो गया था। तुम्हारे बारे में नहीं सोंच पाया।"
"तभी कुदरत ने आपको एक और मौका दिया है। आप मेरे और अन्य लोगों के कातिलों का पर्दाफाश कर उन्हें जेल भिजवा दीजिए। मैं भी मुक्त हो जाऊँगी।"
कह कर रेश्मा गायब हो गई। मुकुंद सब कुछ पुलिस को बताने के इरादे से बाहर की तरफ भागा। वह हॉल में पहुँचा ही था कि सामने शंभू और डॉक्टर खड़े दिखाई पड़े। डॉ. दर्शन लाल के चेहरे पर क्रूर मुस्कान थी।
"कहाँ भागे जा रहे हो?"
"तुम लोगों की असलियत दुनिया के सामने लाने के लिए।"
"अच्छा.....! हम तुम्हें ऐसा करने देंगे क्या?"
डॉक्टर ने शंभू को इशारा किया। उसने मुकुंद को पकड़ लिया। डॉक्टर ने जेब से पतली रस्सी का एक टुकड़ा निकला। मुकुंद के पीछे जाकर रस्सी से उसका गला घोंटने लगा। मुकुंद ने खुद को छुड़ाने का प्रयास किया। कुछ क्षण उसने संघर्ष किया फिर उसकी सांसें बंद हो गईं। हाथ पैर ढीले पड़ गए।
"अब इसकी लाश का क्या करना है?" शंभू ने पूँछा।
"यहीं पड़ी रहने दो। मुख्यमंत्री के जाने के बाद दफन कर देंगे। अभी चलो।"
मुकुंद के शरीर को वहीं छोड़ कर दोनों चले गए।
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मुख्यमंत्री जी के आने का समय हो गया था। प्रधान परेशान इधर से उधर टहल रहा था। तभी डॉक्टर और शंभू वहाँ पहुँचे।
"क्या हुआ? सब ठीक है।" प्रधान ने उत्सुकता से पूँछा।
"सब ठीक है। उसे हमेशा के लिए खामोश कर दिया है।" डॉक्टर ने विजयी मुस्कान के साथ कहा।
"चलो बला टली।" प्रधान ने चैन की सांस ली।
मुख्यमंत्री जी का आगमन हो गया था। भवानी प्रसाद ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया। मुख्यमंत्री जी के आतिथ्य के लिए जलपान की भी व्यवस्था की गई थी। भवानी प्रसाद उन्हें वहीं ले गए।
एक अर्से के बाद वसीमगढ़ में इतना बड़ा व्यक्ति आया था। सालाना उत्सव भी था। अतः गांव में सभी बहुत खुश थे।
मुख्यमंत्री जी की सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था थी। स्थानीय पुलिस के साथ साथ मुख्यमंत्री जी के सुरक्षा गार्ड भी तैनात थे।
जलपान के बाद मुख्यमंत्री जी विशेष पूजा के लिए देवी मंदिर जाने वाले थे। उसके बाद संस्कृतिक कार्यक्रम होना था और अंत में मंत्री जी का भाषण।
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मुकुंद ने अपने आप को बचाने के लिए सामर्थ्य भर संघर्ष किया। लेकिन उसकी सांसें थमने लगीं। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। उसे लगा जैसे वह एक लंबी काली सुरंग में प्रवेश कर गया हो। इस सुरंग में वह चल नहीं रहा था बल्कि हवा में तैर रहा था। गति बहुत तेज़ थी। कुछ ही क्षणों में उसे लगा कि सुरंग के दूसरे छोर पर रौशनी है। वह दूसरी दुनिया में पहुँचने वाला है। तभी रेश्मा ने ज़ोर से पुकारा।
"लैट आओ......आप ऐसे नहीं जा सकते। आप को अपना मकसद पूरा करना है।"
वह दूसरी दुनिया में प्रवेश करने ही वाला था तभी उस आवाज़ ने जैसे गति को रोक दिया। वह उल्टी दिशा में बहने लगा।
ज़मीन पर पड़े मुकुंद के निर्जीव शरीर में एक तेज़ कंपन हुआ और उसकी आँखें खुल गईं।
मुकुंद अपने मकसद को पूरा करने के लिए किले के बाहर आ गया। उसका दिमाग तेजी से चल रहा था। वह सोंच रहा था कि किस तरह यहाँ चल रहे कुकर्म की सूचना लोगों को दी जाए। उसे याद आया कि आज गांव में सालाना उत्सव है। इसमें राज्य के मुख्यमंत्री मुख्य अतिथि बन कर आने वाले हैं। वह सोंचने लगा कि यदि किसी तरह वह उनसे संपर्क कर सके तो बात बन सकती है।
पहाड़ी उतरते समय मुकुंद की नज़र देवी मंदिर के शिखर पर पड़ी। उसमें एक लाउडस्पीकर लगा था। उसमें से मंत्रोच्चार की ध्वनि निकल कर वातावरण में फैल रही थी। मुकुंद की आँखों में चमक आ गई। उसने वहीं खड़े होकर देवी को प्रणाम किया।
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जलपान के बाद मुख्यमंत्री जी मंदिर में विशेष पूजा के लिए गए। पूजा विधि करीब पौन घंटे चली। पूजा के बाद मुख्यमंत्री जी सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के लिए पंडाल की तरफ बढ़ रहे थे। तभी मंदिर के लाउडस्पीकर से गूंजती आवाज़ सुन कर सभी चौंक गए।
"माननीय मुख्यमंत्री जी मैं इस तरह लाउडस्पीकर पर बोल कर आपका ध्यान वसीमगढ़ किले में चल रहे मानव अंगों की तस्करी के अवैध कारोबार की तरफ खींचना चाहता हूँ। इस कारोबार में ग्राम प्रधान भवानी प्रसाद और डॉ. दर्शन लाल शामिल हैं। यदि आप मुझसे मिलने को तैयार हैं तो मैं आपको सारी बात बता सकता हूँ। कृपया मेरी बात का यकीन करें। मुझे अपने पास आने दें। मैं मंदिर में हूँ। आप पुलिस भेज कर मुझे यहाँ बुला लीजिए।"
मुकुंद की आवाज़ सुनते ही डॉक्टर और भवानी प्रसाद के होश उड़ गए। उन्होंने फौरन शंभू को इशारा किया। लेकिन मुख्यमंत्री जी ने अपने गार्ड को कह कर उसे रोक लिया। मुख्यमंत्री जी ने मुकुंद को उनके पास लाने का आदेश दिया। डॉक्टर और भवानी प्रसाद की उन्हें समझाने की सारी कोशिशें बेकार गईं।
मुकुंद ने मुख्यमंत्री जी को सारी बात बता दी। पुलिस दल व अपने सुरक्षा गार्डों के साथ मुख्यमंत्री जी मुकुंद को लेकर किले में गए। वहाँ सब कुछ उन्होंने अपनी आँखों से देखा। भवानी प्रसाद, डॉ. दर्शन लाल और शंभू को गिरफ्तार कर लिया गया।
किले का रहस्य जान कर गांव वाले सकते में थे। मुख्यमंत्री जी ने मुकुंद की तारीफ की। वह गांव वालों का हीरो बन गया।
इन सबके बीच मुकुंद ने देखा कि रेश्मा उसके बगल में खड़ी है। उसने मुकुंद से कहा।
"आपने इन लोगों को गिरफ्तार करवा कर अपनी भूल का प्रायश्चित कर लिया है। अब मैं भी मुक्त हो गई हूँ।"
अपनी बात कह कर वह पुनः गायब हो गई।
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