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मुक्तिबोध


पाँच साल गुजर गए लेकिन आज भी उपेंद्र के सीने पर एक बोझ था.  अपराध बोध से वह मुक्त नही हो पा रहा था. हलांकि जो हुआ था वह महज़ एक हादसा था. लेकिन वह खुद को ही दोष देता था.
सुबोध उसकी मौसी के देवरानी का बेटा था. वह उससे कुछ ही माह बड़ा था. उसके दोनों मौसेरे भाई उससे काफी बड़े थे. अतः सुबोध से उसकी बहुत पटती थी. दोनों अच्छे दोस्त थे. इत्तेफ़ाक से उपेंद्र का स्थानांतरण उसी शहर में हो गया जहाँ सुबोध  अपना ट्रैवेल एजेंसी का व्यापार चला रहा था. दोनो का विवाह नही हुआ था अतः जब भी फुर्सत मिलती दोनों एक दूसरे के साथ वक्त बिताते थे. दिनों दिन दोनो की दोस्ती और गहरी होने लगी थी.
उपेंद्र का विवाह उसके ऑफिस की कुलीग निकिता से हो गया. साथ काम करते हुए दोनों में प्रेम हो गया. घर वालों की रज़ामंदी भी मिल गई. उनका विवाह हो जाने पर भी सुबोध और उपेंद्र के बीच के रिश्ते में कोई फ़र्क नही पड़ा. निकिता उस रिश्ते का तीसरा कोंण बन गई.
उपेंद्र का प्रमोशन हुआ था. उसने नई कार खरीदी थी. इसका जश्न मनाने के लिए उसने सुबोध को घर बुलाया. सुबोध ने कहा कि अच्छा हो कि वह निकिता को लेकर उसके घर आ जाए. निकिता ने कहा कि वह कुछ आराम करना चाहती है इसलिए वह अकेला चला जाए.
उपेंद्र जब सुबोध के घर पहुँचा तो वह उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. उसने निकिता के बारे में पूंछा तो उपेंद्र ने बता दिया कि वह थकी हुई थी इसलिए नही आई. उपेंद्र ने सुझाव दिया कि क्यों ना आज उस ढाबे में चल कर खाना खाया जाय जहाँ वह दोनो अक्सर जाया करते थे. सुबोध को सुझाव पसंद आया. ढाबा शहर से दूर था. मौसम अच्छा था. ढाबे पर दोनो ने मनपसंद खाना खाया और बीते दिनों को याद करते रहे. इन सब में बहुत देर हो गई.
लौटते समय अचानक ही बारिश होने लगी. बारिश तेज़ होती जा रही थी. कार चलाना मुश्किल हो रहा था. तभी अचानक सामने से एक कार आती दिखाई दी. उसे अचानक सामने देख कर उपेंद्र ने अपनी कार काट कर किनारे करनी चाही किंतु वहाँ पहले से एक खराब ट्रक खड़ा था. उसकी कार जाकर ट्रक से टकरा गई.
अस्पताल में जब होश आया तो पता चला कि उसे तो कुछ चोटें ही आई थीं किंतु सुबोध की रीढ़ की हड्डी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. डॉक्टरों का कहना था कि उसे आगे का जीवन व्हीलचेयर पर ही बिताना पड़ेगा.
कुछ दिनों में उपेंद्र को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. सुबोध सर्जरी के लिए अमेरिका चला गया. दो वर्ष वहाँ रह कर अपना इलाज कराया. फिर वहीं बस गया. सुबोध चलने फिरने से मोहताज हो गया था किंतु उसने हार नही मानी. अपने अनुभवों को उसने दूसरों के साथ साझा करना शुरू कर दिया. एक अच्छे लेखक व वक्ता के रूप में वह दूसरों को कठिनाइयों से लड़ने की प्रेरणा देने लगा.
इस दौरान सुबोध उपेंद्र के साथ फोन व इंटरनेट के ज़रिए संपर्क में रहा. उसने कई बार उपेंद्र को अमेरिका आकर उससे मिलने को कहा किंतु वह नही आया. उसे उपेंद्र के मन की ग्लानि का भान था. वह अक्सर उसे समझाता कि जो हुआ उसमें उसका दोष नही था. यह भगवान की मर्ज़ी थी. वह उसके जीवन को नई दिशा देना चाहते थे. निकिता भी उसे अक्सर यही समझाती थी किंतु उपेंद्र अपराधबोध से मुक्त नही हो पा रहा था.
उपेंद्र को लगता था यदि उस दिन वह ढाबे पर जाने की बात ना करता तो यह हादसा नही होता. दुर्घटना के बाद से उसने सुबोध को नही देखा था. वह डरता था कि उसे इस हालत में कैसे देखेगा.
आखिरकार सुबोध ने ही भारत आने का फैसला किया. उपेंद्र निकिता के साथ उसे लेने एयरपोर्ट गया. इसके लिए निकिता ने ही उसे मनाया था.
दोनों सुबोध की प्रतीक्षा करने लगे. कुछ देर में वह दिखाई दिया. उपेंद्र को देखते ही वह मुस्कुरा दिया.
अपनी स्वचालित व्हीलचेयर में वह उसके सामने आया. उपेंद्र उसके सामने घुटनों के बल बैठ गया. दोनों हाथ जोड़ कर बोला "मुझे माफ कर दो." सुबोध ने हल्के से मुस्कुरा कर अपनी बाहें फैला दीं. उपेंद्र उसके गले लग गया. कुछ देर तक दोनों गले लगे हुए रोते रहे. उपेंद्र के सीने का बोझ उतर गया था. उसे मुक्तिबोध हो रहा था.

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