थकी हारी रीमा घर में दाखिल हुई. डाइनिंग टेबल पर रखे जग से गिलास में पानी डाला. अभी एक घूंट पानी ही पिया था कि पंकज ने सवाल किया "आखिर कब तक यह चलेगा. अब तुम रोज़ ही देर से आने लगी हो."
रीमा को गुय्सा आ गया. गिलास पटकते हुए बोली "बताया था ना कि एक नए असाइनमेंट के लिए प्रेज़ंटेशन बना रही हूँ. काम नही करूँगी तो प्रमोशन कैसे मिलेगा."
"क्या करना है प्रमोशन का. मुझे मिल चुका है ना. वह हमारे लिए बहुत है." पंकज ने भी ऊंची आवाज़ में कहा. "मैं नही चाहता कि तुम अपनी गृहस्ती को नज़रअंदाज करो." कह कर वह पैर पटकता हुआ बेडरूम में चला गया.
रीमा एक कुर्सी खींच कर बैठ गई. वह ठगा सा महसूस कर रही थी. मन ही मन सोंचने लगी कि क्या यह वही पंकज है जिससे उसने विवाह किया था. शादी के पहले कही गई उसकी बातें उसके दिमाग में घूमने लगीं.
"मैं आज के जमाने का मर्द हूँ. मुझे मेरे पीछे चलने वाली पत्नी नही चाहिए. मुझे तो वह बीवी चाहिए जो हर चीज में मुझसे बराबरी करे."
पर आज उसका बराबरी करना पंकज को अखर रहा था. पहले कहता था कि गृहस्ती की जिम्मेदारी दोनों की साझा है. वह हर काम में बराबरी का सहयोग करेगा. आज वही पंकज उसे गैरजिम्मेदार कह रहा था. जबकी वास्तविकता यह थी कि अपनी किसी भी जिम्मेदारी की उसने कभी अनदेखी नही की थी.
उसने कभी नही सोंचा था कि पंकज ऐसा होगा. विवाह के एक साल के भीतर ही उसका रंग बदल जाएगा.
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