लाला हरबंसलाल अपनी पुशतैनी हवेली के आंगन में बैठे थे. जो सामान ले जाया जा सकता था वह गठरियों में बंधा रखा था. उस पर एक नजर डाल कर उन्होंने गहरी सांस ली.
आंगन में गौरैया रोज़ की तरह फुदक रही थी. मुंडेर पर बैठा कौवा भी वैसे ही कांव कांव कर रहा था. प्रकृति का हर काम वैसे ही चल रहा था. कहीं कोई उथल पुथल नही थी सिवाय इंसानी ज़िदगी के. इंसानों के जीवन में भूचाल आया था. मजहब के नाम पर मुल्क दो हिस्सों में बंट गया था. इस बंटवारे ने बहुतों को उनकी जड़ों से अलग कर दिया था.
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