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हमदर्द


 लता को आज पापा की नसीहतें याद आ रही थीं "देखो बेटा जब वक्त खराब हो तो साया भी साथ छोड़ देता है. ऐसे में किसी पर भी भरोसा ना कर खुद को मज़बूत बनाना चाहिए." तब बचपना था. लता सोंचती थी कि जब उसके आस पास इतने लोग हैं तो भला वह अकेली कैसे होगी. उसके पति की बीमारी ने उसके पिता की कही बात सच साबित कर दी. दुनिया का एक अलग ही रूप दिखाई दिया उसे. किसी ने भी साथ नही दिया. जिनकी उसने स्वयं सहायता की थी वह भी बगलें झांकते हैं.
पिछले एक महिने से वह घर और अस्पताल के बीच चकरघिन्नी बनी हुई है. कभी डॉक्टरों से मिलने के लिए या फिर टेस्ट और दवाइयों के लिए इधर से उधर भागती फिरती है. ऐसा नही कि यह सब वह भार समझ कर कर रही हो. यह सब तो वह पूरे मन से कर रही है. जो प्यार और सम्मान उसे अपने पति से मिला है उसके सामने तो यह कुछ भी नही. उसे किसी से किसी भी तरह की मदद की अपेक्षा नही. उसे तो केवल भावनात्मक सहारे की आवश्यक्ता है. कोई हो जो उसे पास बिठाकर सांत्वना दे ' तुम सब सही तरह से संभाल रही हो. सब सही हो जाएगा.' अभी अभी वह अस्पताल पहँची है. उसके पति अभी सो रहे थे. कुछ समय में नर्स आकर नित्यकर्म में मदद करेगी. फिर उन्हें टेस्ट के लिए ले जाना है. लता ने बगल वाले बेड की तरफ देखा. नसीम अपने अब्बू को नाश्ता करा रही थी. वह भी अकेले ही सब संभाल रही है. कभी कभी एक आदमी आता है. अभी कुछ देर पहले ही गया है.
लता अपने पति की फाइल देखने लगी. सारे पर्चे व्यवस्थित थे.
"लीजिए चाय पी लीजिए." नसीम ने मुस्कुराते हुए कहा. लता कुछ सकुचाई "नही आप पीजिए."
नसीम ने कप थमाते हुए कहा "पीजिए बेहतर महसूस करेंगी." दोनों चाय पीने लगीं. "आपा आप बहुत बहादुर हैं. सब कुछ अकेले ही कर रही हैं." अपने लिए आपा शब्द लता को भला लगा. मुस्कुरा कर बोली "तुम भी तो सब अकेले कर रही हो."
"मेरे अलावा अब्बू का और कौन है."
"वो जो अभी आकर गए." लता ने उत्सुक्ता दिखाई.
"वो तो हमारे पड़ोसी हैं. कभी कभी मदद के लिए आ जाते हैं."
दोनों एक दूसरे के साथ बात करने लगीं. चाय के साथ प्रेम और हमदर्दी के घूंट भर रही थी.

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